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उत्तराखण्ड के प्रमुख ऊर्जा संसाधन | Major Energy Resources of Uttarakhand

किसी देश या प्रदेश के सर्वांगीण विकास के लिए ऊर्जा एक आधारभूत अवयव है। वर्तमान में ऊर्जा के विद्युत रूप का में विशेष महत्व है। ऊर्जा के इस रूप को हम कोयला, खनिज तेल, आणविक खनिज, प्राकृतिक गैस एवं जल आदि पारम्परिक स्रोतों या सूर्यतप, पवन, बायोगैस, समुद्री ज्वार, भू-ताप एवं अवशिष्ट कचरें आदि गैर-पारम्परिक स्रोतों से प्राप्त ऊर्जा को रूपान्तरित करके प्राप्त करते हैं।


उत्तराखण्ड में खनिज, कोयला, पेट्रोलियम, आदि की कमी होते हुए भी जल का अपार भण्डार है, जिस कारण जल विद्युत की व्यापक सम्भावनाएं हैं।


केन्द्र सरकार के ऑकलन के अनुसार यदि चीन के अनुरूप लघु जल विद्युत परियोजनाओं को विकसित किया जाय तो यहाँ लगभग 40,000 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन किया जा सकता है। इस 40 हजार मे.वाट. में से लगभग 25 हजार मेगावॉट क्षमता की नई परियोजनाएं चिन्हित की जा चुकी हैं, जिनमें से लगभग 12,716 मेगावाट की 59 नई परियोजनाओं का निर्माण शुरू हो गया था लेकिन आपदा के बाद पर्यावर्णीय कारणों से अनेक परियोजनाओं का निर्माण कार्य रोक दिया गया है।


अन्य राज्य अथवा केन्द्र द्वारा स्थापित किसी परियोजना से राज्य को रायल्टी के रुप में 12% बिजली निःशुल्क मिलती है।


2018-19 तक राज्य के 15318 गांवों को उत्तराखण्ड पॉवर कार्पोरेशन द्वारा तथा दुर्गम क्षेत्र के 263 गांवों को उरेडा द्वारा सौर ऊर्जा के माध्यम से विद्युतिकृत किया जा चुका था।


राज्य में विद्युत खपत की अपेक्षा उत्पादन काफी कम है अतः बाह्य स्रोतों से विद्युत क्रय करना पड़ता है।


ऊर्जा नीति


राज्य के गठन के बाद सरकार ने राज्य के अपार जल संसाधन को ध्यान में रखते हुए जिस ऊर्जा नीति का निर्धारण किया है उसके मुख्य बिन्दु अधोलिखित हैं।


परियोजनाओं को राज्य ऊर्जा निगम तथा नेशनल पॉवर कारपोशन की अध्यक्षता/नियंत्रण में संचालित किया जाएगा। 


विद्युत परियोजनाओं में निजी क्षेत्रों की सहभागिता बढ़ायी जाएगी।


राज्य में पहले से अधूरी पड़ी 15 छोटी जल विद्युत परियोजनाएं राज्य जल विद्युत निगम द्वारा संचालित की जाएगी।


पॉवर ग्रिड कॉरपोरेशन के सहयोग से रुड़की, किच्छापिथौरागढ़ में तीन नये सब स्टेशनों का निर्माण किया जायेगा। जिससे राज्य का अपना स्वतंत्र ग्रिड बन सके।


विद्युत का उत्पादन पर्यावरण एवं पुनर्वास समस्याओं को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा।


ऊर्जा नीति के क्रियान्वयन के लिए एक सदस्यीय विद्युत नियामक आयोग का गठन किया जाएगा।


25 मेगावाट तक की परियोजनाएं लघु एवं 25 मेगावाट से अधिक की परियोजनाएं बड़ी परियोजनाएं कहलायेंगी।


29 जनवरी 2008 को राज्य में नवीकरणीय ऊर्जा नीति की घोषणा की गई। इस नीति में 2020 तक अक्षय ऊर्जा स्रोतों (पवन, सौर, बायोमास, जियो थर्मल आदि) से 1000 मेगावॉट क्षमता से अधिक विद्युत उत्पादन की प्रतिबद्धता जताई गई है।


इस नीति में 25 मे.वा. तक की जल वि. परियोजनाओं को स्थानीय लोगों को आवंटित किया जायेगा।


5 में. वाट से कम क्षमता के जल वि. परि. पर 15 वर्षों तक रॉयल्टी में छूट दी जायेगी, उसके बाद 18% रॉयल्टी ली जायेगी ।


प्रीमियर की राशि 5 लाख रु. के प्रति मेगावाट से घटाकर 5000 रु. प्रति आवेदन और आवेदन प्रक्रिया शुल्क 25000रु. कर दी गई है ।


परियोजनाओं की स्थापना सम्बंधी प्रस्ताओं की स्वीकृति मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली कमेटी करेगी।


ध्यातव्य है कि इस नीति के निर्माण के समय राज्य की जल विद्युत क्षमता 15000 मेगावाट ऑकलित की गई थी।


संगठनात्मक ढांचा


राज्य के गठन के बाद उ. प्र. सरकार से ऊर्जा विभाग का प्रशासनिक नियंत्रण अपने हाथ में लेते हुए उत्तराखण्ड सरकार द्वारा 1 अप्रैल 2001 को उत्तराखण्ड विद्युत निगम का गठन किया गया। फिर उपरोक्त निगम नियंत्रण में विद्युत उत्पादन, पारेषण तथा वितरण के लिए तीन अलग-अलग निगमों का गठन किया गया। प्रमुख संगठनों का संक्षिप्त परिचय अधोलिखित है।


उत्तराखण्ड जलविद्युत निगम लि.


इस निगम का गठन 1 अप्रैल 2001 को गठित उत्तराखण्ड विद्युत निगम के अन्तर्गत राज्य की जल क्षमता का अधिक से अधिक उपयोग करते हुए जल विद्युत उत्पादन को बढ़ाने के लिए किया गया। वर्तमान में इस निगम के नियंत्रण में 20 से अधिक जल विद्युत उत्पादन केन्द्र हैं, जहाँ 1365 मेगा वॉट जल विद्युत का उत्पादन हो रहा है। इसके अलावा 20 से अधिक परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। यह निगम ही राज्य की परियोजनाओं के निर्माण हेतु निजी क्षेत्र या केन्द्रीय संगठनों को आवंटित करता है।


टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन


केन्द्र तथा उ॰ प्र॰ सरकार के संयुक्त उपक्रम के रूप में 12 जुलाई 1988 को इस कार्पोरेशन की स्थापना की गई। फरवरी 1989 में टिहरी जल विद्युत परियोजना का निमार्ण कार्य उ.प्र. सिंचाई विभाग से लेकर इस कार्पोरेशन को सौंप दिया गया।


पॉवर ट्रांसमिशन कॉरपोरेशन ऑफ उत्तराखण्ड लि. (PTCUL)


इसका गठन 1 जून 2004 को राज्य के बिजली ट्रांसमिशन (पारेषण) की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया गया। इस निगम का काम 132 केवी और उससे ज्यादा क्षमता की बिजली सप्लाई के लिए नेटवर्क तैयार करना और सुचारू बिजली सप्लाई को कायम रखना है।


उत्तराखण्ड पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (UPCL)


इस कम्पनी का गठन युजेवीएनएल और पीटीसीयूएल से बिजली लेकर उपभोक्ताओं तक वितरण के लिए किया गया है। 132 केवी से नीचे के सब स्टेशनों का नियंत्रण इस निगम के हाथ में होता है।


उत्तराखण्ड रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (UREDA)


इस एजेंसी की स्थापना राज्य में पुनर्नवीकरण तथा वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों के विकास एवं प्रचार-प्रसार केलिए की गई है। इसका मुख्यालय अल्मोड़ा में तथा क्षेत्रीय कार्यालय सभी जिलों में है। यह एजेंसी सौर तथा पवन ऊर्जा के साथ-साथ लघु जलविद्युत परियोजनाओं तथा वॉटरमिल्स (घराट) को भी अपग्रेड करने का कार्य करती है ।


उरेडा द्वारा एक-दो मेगावाट तक की जल विद्युत परियोजनाओं का भी निर्माण किया जाता है।


उरेडा द्वारा होम सोलर लाइट, स्ट्रीटलाइट तथा सोलर लालटेन की मदद से दुर्गम गांवों में रोशनी पहुँचाई जा रही है।


राज्य में निजी क्षेत्र के सहयोग से 2018 तक 500 मे.वा. सौर विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।


राज्य में अनाजों को पीसने के लिए वॉटर मिल्स (पनचक्की या घराट) का प्रयोग अंग्रेजी शासन काल के पूर्व से ही होता चला आ रहा था, लेकिन विद्युत तथा डीजल इंजनों के विकास होने के बाद ये लगभग बन्द हो चुके थें, लेकिन यूरेडा इनका पुनर्विकास कर रहा है। इसके लिए राज्य के चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून, रूद्रप्रयाग और टिहरी जिलों में वॉटरमिल्स ऑनर एसोसिएशन की स्थापना की गई है। अप्रैल, 2001 में केन्द्र ने पनचक्की को लघु उद्योग का दर्जा दिया ।


उत्तराखण्ड विद्युत नियामक आयोग


इस आयोग की स्थापना राज्य में विद्युत व्यवसाय के विनियमन तथा विद्युत दरों के निर्धारण के लिए की गई है।


पावरग्रीड कार्पोरेशन


इसका गठन पॉवरग्रीड की स्थापना एवं उसके संचालन के लिए किया गया।


उत्पादनरत प्रमुख परियोजनाएं


जल विद्युत की अपार संभावनाओं वाले इस राज्य में 1906-07 से ही लघु जल विद्युत परियोजनाओं की स्थापना होने लगी थी। राज्य की प्रमुख परियोजनाएं अधोलिखित है।


ग्लोगी जल विद्युत परियोजना


3.5 मे.वा. क्षमता वाली लघु जल विद्युत परियोजना की स्थापना मंसूरी देहरादून मार्ग पर क्यारकुली व भट्टा गांव के मध्य की गई है। इस परियोजना से विद्युत उत्पादन मई 1909 में शुरू हुई थी। यह मैसूर के बाद देश का दूसरा और उत्तर भारत का प्रथम विद्युत संयंत्र है।


पथरी परियोजना


स्वतंत्रता पूर्व, गंगा नहर, हरिद्वार, 20.40 मेगावॉट


मोहम्मदपुर परियोजना


स्रवतंत्रता पूर्व, गंगा नहर, हरिद्वार, 9.30 मेगावॉट।


खमीटा परियोजना


1955 से, ऊ.सि.न., शारदा; 41.40 मेगावॉट ।


लोहियाहेड परियोजना


ऊ.सि.न., शारदा, 27.60 मेगावॉट  


ढकरानी परियोजना


1965-70 से, देहरादून, 33.75 मेगावॉट 


ढालीपुर परियोजना


1965-70 से, यमुना नगर, देहरादून, 51 मेगावॉट ।


छिबरो परियोजना


1974-76 से, टोन्स, देहरादून, 240 मेगावॉट ।


रामगंगा परियोजना


1976-78 से, रामगंगा, पौढ़ी, 1983 मेगावॉट ।


चीला परियोजना


1980-81 से, गंगा, पौढ़ी, 144 मेगावॉट । 


खोदरी परियोजना


1983-84 से, यमुना, देहरादून, 120 मेगावॉट।


टनकपुर परियोजना


1993 से, शारदा, चंपावत, 120 मेगावॉट ।


टिहरी परियोजना


भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम पर स्थित भारत सरकार के इस बहुउद्देशीय परियोजना के तहत 260.5 मीटर ऊँचे काफर-बाँध (मिट्टी तथा पत्थर पूरित) का निर्माण किया गया है, जो कि एशिया का सबसे ऊँचा तथा दुनिया का चौथा सबसे ऊँचा बाँध है। इस परियोजना की विशालता के कारण इसे 'राष्ट्र का गांव' की संज्ञा दी गई है। परियोजना से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य अधोलिखित है।


केन्द्र और उ०प्र० सरकार की इस संयुक्त परियोजना को 1972 में योजना आयोग ने अपनी स्वीकृति प्रदान की और 1978 से सिंचाई विभाग (उ०प्र० सरकार) द्वारा इसके बांध का निर्माण कार्य शुरु हुआ। कार्य की धीमी प्रगति के कारण 1988 में केन्द्र सरकार ने इसके निर्माण की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली और इस प्रयोजन से 'टिहरी जल बांध निगम' (THDC) की स्थापना कर 1989 में निर्माण की जिम्मेदारी निगम को सौंप दी। 1990 में इस निगम को विस्थापितों के पुनर्वास की भी जिम्मेदारी सौंपी गई।  


राज्य के गठन के बाद उ.प्र. और दिल्ली के अलावा उत्तराखण्ड भी इसका एक हिस्सेदार बन गया। 


कुल 2400 मेगावॉट के विद्युत उत्पादन क्षमता वाली इस परियोजना में दो चरण हैं। प्रथम चरण में 1000 मेगावॉट की टिहरी बांध एवं जल विद्युत परियोजना है, जबकि द्वितीय में 1000 मेगावॉट की टिहरी पम्प स्टोरेज प्लांट तथा 400 मेगावॉट की कोटेश्वर वांध एवं जल विद्युत परियोजना | ध्यातव्य है कि 1000 1000 मेगावॉट के दोनों भूमिगत प्लांट 260.5 मीटर ऊँचे टिहरी बांध के करीब में ही हैं, जबकि 400 मेगावॉट का कोटेश्वर प्लांट मुख्य बांध से 22 किमी डाउन स्ट्रीम में 97.5 मीटर ऊँचा कंक्रीट का बांध बनाकर (उसके पास) स्थापित किया जा रहा है।


इस परियोजना के मुख्य बांध और जलाशय से चार विपथन सुरंगे निकाली गई है, जिनमें से प्रत्येक 11 मीटर व्यास एवं घोड़े के नाल के आकार वाली हैं, जिनकी कुल लम्बाई 6.3 किमी हैं।


इन चार सुरंगों में से दो से टिहरी जल विद्युत परियोजना की 250-250 मेगावॉट की चार यूनिटे तथा शेष दो सुरंगो से टिहरीपम्प स्टोरेज प्लांट की 250-250 मेगावॉट की चार यूनिटे संचालित होनी हैं।


42 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत इसके जलाशय (स्वामी रामतीर्थ सागर ) की कुल जल धारण क्षमता 354 करोड़ घनमीटर है जिसमें 261 करोड़ घनमीटर जल क्रियाशील है। विद्युत उतपादन के लिए इस जलाशय के जल स्तर को कम से कम 740 मी. ( समुद्र तल से ) की ऊँचाई तक निरन्तर बनाये रखना होगा।


इस परियोजना का प्रथम चरण (1000 मेगावॉट का टिहरी जल विद्युत परि०) 30 जुलाई 2006 को राष्ट्र को समर्पित कर दिया गया। अब 1400 मेगावॉट के दूसरे चरण पर तेजी से काम चल रहा है। दिसम्बर 2007 लगभग तक इस परियोजना पर लगभग 8000 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके थे।


टिहरी परियोजना से लाभ


1. 2400 मेगावॉट विद्युत का उत्पादन |


2. वर्तमान में 6.04 लाख हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र में सिंचाई के स्थायीकरण के अलावा 2.7 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त सिंचाई की सुविधा का विकास ।


3. दिल्ली के 40 लाख लोगों के लिए प्रतिदिन 300 क्यूसेक तथा उ०प्र० के विभिन्न नगरों तथा गांवों के लोगों के लिए प्रतिदिन 200 क्यूसेक पेय जल की उपलब्धता ।


4. उ.प्र., विहार तथा प. बंगाल में बाढ़ में कमी । 


5. स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर ।


6. देश को प्रतिवर्ष 2000 करोड़ रुपये का लाभ तथा उत्तराखण्ड को रायल्टी के रूप में कुल उत्पादन का 12% बिजली मुफ्त में। 


7. गढ़वाल क्षेत्र में पर्यटन, यातायात, विकास तथा मछली पालन एवं वनीकरण में बढ़ोत्तरी ।


विस्थापन और पुनर्वास


इस परियोजना से लगभग 1 लाख लोगों का निवास प्रभावित हुआ है जिनके पुनर्वास के लिए 582 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई है।


परियोजना से 1815 मे स्थापित टिहरी शहर व आस-पास के 39 गाँव पूर्ण रूप से और 86 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए हैं। इसके जलाशय (स्वामी रामतीर्थ सागर) में हिटरी शहर पूर्ण रूप से डूब गया है।


टिहरी शहर के लोगों (लगभग 529 परिवारों ) को मूलशहर से 24 किमी. दक्षिण में नव स्थापित नगर नई टिहरी तथा देहरादून एवं ऋषिकेश नगरों में पुनर्वासित किया गया है।


परियोजना से प्रभावित ग्रामीण लोगों (लगभग 9239परिवारों) को रायवाला (देहरादून ), पशुलोक (ऋषिकेश, देहरादून), पथरी ( हरिद्वार), बंजारावाला एवं भानियावाला आदि स्थानों पर पुनर्वासित किया गया है।


परियोजना सम्बंधी महत्वपूर्ण तथ्य 


इस बांध का डिजाइन प्रो० जेम्स ब्रून ने किया था। शुरू में यह से मात्र 600 मेगावॉट की परियोजना थी और इसकी लागत 197 करोड़ टे रुपये थी। लेकिन 1986 में सोवियत रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाच्योव के भारत आगमन और टिहरी बांध निर्माण को मदद के लिए समझौता होने के साथ ही केन्द्र सरकार ने इस परियोजना का विस्तार इसके प्रथम चरण को 1000 मेगावॉट तथा द्वितीय चरण को 1400 मेगावॉट करने की घोषणा की।


टिहरी परियोजना का विरोध 


टिहरी शहर और उसके आस-पास के क्षेत्रों के अस्तित्व मिटने और परिणाम स्वरूप लोगों के विस्थापित होने तथा भूगर्भिक एवं पर्यावरणीय कारणों से इस परियोजना का शुरु से ही विरोध होता रहा है। बांध के विरोध में सर्वप्रथम आवाज टिहरी गढ़वाल रियासत की राजमाता कमलेंदुमती शाह ने में उठाई थी। उनके बाद 1978 टिहरी में विद्यासागर नौटियाल की अध्यक्षता में बांध विरोधी समिति का गठन हुआ। समिति लखनऊ से दिल्ली तक निरन्तर संघर्ष करती रहीं। सुन्दरलाल बहुगुणा, वीरेन्द्र सकलानी आदि इस समिति से जुड़े रहे। 1979 में सकलानी ने समिति की ओर से बांध के विरोध में उच्चतम न्यायालय में याचिका भी दायर की थी। 1991 में बहुगुणा के नेतृत्व में समिति ने धरना देकर 76 दिनों तक बांध निर्माण को रोके रखा था।


भौगोलिक दृष्टिकोण से इस क्षेत्र के नवीन होने के कारण यहां बार-बार भूकंप आने का खतरा रहता है। यदि रिक्टर स्केल पर बड़ा भूकंप आया तो सिर्फ इसी क्षेत्र के डूबने बर्बाद होने का खतरा नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव पूरे उत्तर भारत पर होगा। ज्ञातव्य है कि टिहरी बांध 7.5 किमी. गहराई में स्थित खतरनाक भूकंप अधिकेन्द्रीय क्षेत्र 'महार टियर फास्ट' के ऊपर स्थित है। जलाशय के निर्माण से भूगर्भ में सक्रियता आ जाने से भी भूकंप आ सकता है।


मछलियों व कई वनस्पतियों तथा जीवों पर इस निर्माण का घातक प्रभाव पड़ेगा।


कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि आवाह क्षेत्र मे उच्च अपरदन के कारण जलाशय में गाद जमाव में तेजी आएगी जिससे एक तरफ जहा जलाशय की आयु मात्र 60 वर्ष होगी वहीं इस क्षेत्र के भूगर्भिक एवं पर्यावरणीय संरचना पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।


तमाम विरोधों के बावजूद बांध का निर्माण नहीं रूका और दिसम्बर 2002 तक स्वामी रामतीर्थ की तपस्थली तथा सुन्दरलाल बहुगुणा के चिपकों एवं बांध विरोधी आन्दोलन का केन्द्र रहा यह टिहरी शहर जल में डूब गया ।


विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना


चमोली जिले में अलकनन्दा नदी पर 650 मेगावॉट के इस जल विद्युत परियोजना का निर्माण अविभाजित उ०प्र० पावर कारपोरेशन एक प्राइवेट कम्पनी (मे. जे.पी. वैंचर्स प्रा.लि.) के माध्यम से करा रही थी। बीच में लगभग 12 वर्षो तक धनाभाव के कारण इसका निर्माण कार्य रुका रहा। राज्य विभाजन के बाद निर्माण कार्य पुनः शुरु हुआ और इससे विद्युत उत्पादन शुरु हो चुका है।


इस परियोजना से उत्पादित बिजली का 88% उ०प्र० सरकार को और शेष 12% उत्तराखण्ड सरकार को रायल्टी के रूप में मिलती है।


धौलीगंगा फेज-1 परियोजना


280 मेगावाट की भारत सरकार की यह जल विद्युत परियोजना पू. धौलीगंगा नदी पर धारचूला (पिथौरागढ़) के पास स्थित है। इस परियोजना को 2005 में चालू किया गया। इस परियोजना का बांध 56 मीटर ऊँचा तथा 317 मीटर लंबा है, जिसका निर्माण सी. एफ. आर. डी. (कंक्रीट फेज) रॉकफिल डेम) से किया गया है। भारत में पहली बार कट ऑफ वॉल तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इस बांध का निर्माण एन. एच. पी. सी. द्वारा कराया गया है। कुमाऊँ क्षेत्र में भूमिगत पॉवर हाउस और सुरंगों वाली यह पहली परियोजना हैं।


मनेरी भाली परियोजना I एवं II


90 मेगावाट की मनेरी भाली-1 (तिलोथ) परियोजना 1983 से कार्यरत है। यह भागीरथी नदी पर उत्तरकाशी जिले में स्थित है।


304 मेगावाट के मनेरी भाली -II (धरासु) परियोजना का निर्माण 1976 में शुरू किया गया था, लेकिन धनाभाव के कारण 1990 से निर्माण कार्य रूका हुआ था, जिसे 2002-03 में पुनः शुरू किया गया। परियोजना फरवरी 2008 से चालू हो गई है।


श्रीनगर जल विद्युत परियोजना


अलकनंदा नदी पर पौढ़ी में स्थापित 330 मेगावॉट की इस परियोजना से उत्पादित बिजली का क्रय उ.प्र. सरकार करती है।


निर्माणधीन व चिन्हित प्रमुख परियोजनाएं


राज्य में उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लि. (UJVNL), टिहरी हाइड्रो डेपलमेंट कार्पोरेशन (THDC), राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (NTPC), राष्ट्रीय जल विद्युत निगम (NHPC), सतलुज जल विद्युत निगम (SJVNL), आईपीपीएस तथा निजी कम्पनियों के अधीन कई लघु तथा बड़ी परियोजनाएं निर्माणाधीन है, जिनमें से प्रमुख इस प्रकार है -


UJVNL द्वारा मनेरी भाली 11 (304 MW), पाला मनेरी (480MW) आदि परियोजनाएं बनाई जाती है।


THDC द्वारा विष्णुगाड-पी-पालकोटि (250MW), मनेरी झेलम (35 MW), टिहरी (2400 MW), जाडगंगा (600) MW), वोकांग-बेलिंग (330 MW), झेलम तमक (60 MW), करमोली (140 MW), तथा गोहनाताल (50MW) आदि परियोजनाएं बनाई जानी है।


NTPC द्वारा लोहारीनाग पाला (600MW), लता तपोवन (171 MW), तपोवन विष्णुगाड (520MW), एवं रुपसियाबगड़ खसियाबाड़ा (260 MW) आदि परियोजनाएं बनाई जानी है।


NHPC द्वारा लखवार (300 MW), व्यासी (120) MW), कोटभेल (240MW), खरतोली लुमटी (55 MW), छंगारचाल (240 MW), एवं गरवातवाघाट (600 MW) आदि परियोजनाएं बनाई जानी है।


SJVNL द्वारा देवसारी बांध (300 MW), नटवारमोरी (33 MW), एवं जखोलसांकरी (35 MW), आदि ।


IPPS द्वारा विष्णुप्रयाग, श्रीनगर, हनोलत्यूनी, भिलंगना III, उर्थिग सोबला, रामबाड़ा, अलकनंदा, मपंग वेगुडियार, मोरीहनोल, सिंगोली भटवाड़ी, फाटा-क्यूंग, गौरीकुण्ड, जिम्बागाड, नंदाकिनी III, विरहीगंगा I, विरहीगंगा II, आदि परियोजनाएं बनाई जानी है। 


पाला- मनेरी परियोजना


480 मेगावाट क्षमता वाली यह जल विद्युत परियोजना उत्तरकाशी जिले में भागीरथी नदी पर निर्माणधीन है।


किशो बांध परियोजना


देहरादून जिले में टौंस नदी पर 660 मेगावाट की परियोजना स्थापित की जा रही है।


उत्यासू बांध परियोजना


पौड़ी गढ़वाल जिले में अलकनन्दा नदी पर इस बांध से 1000 मेगावाट विद्युत उत्पादन होने की सम्भावना है।


लोहारीनाग-पाला परियोजना


उत्तरकाशी जनपद में भागीरथी नदी पर इस बांध से 520 मेगावाट विद्युत उत्पादन होने की सम्भावना है।


कोटलीभेल परियोजना


टिहरी जनपद में गंगा नदी पर इस बांधा से 1000 मेगावाट विद्युत उत्पादन होने की सम्भावना है।


पंचेश्वर बांध परियोजना


1996 की संधि के अनुरुप भारत - और नेपाल सरकार की 5040 मेगावॉट की यह परियोजना काली नदी पर बनाई जायेगी। परियोजना से उत्पन्न बिजली और पानी को आधा आधा बांट लिया जायेगा। इसका बांध टिहरी से ढाई गुना बड़ा होगा।




रन ऑफ द रीवर तकनीक

वर्तमान में राज्य की जल विद्युत परियोजनाओं में प्रायः सुरंग प्रणाली (रन) ऑफ रीवर तकनीक) का इस्तेमाल किया जा रहा है।


इस तकनीक में नदियां प्राकृतिक मार्ग की बजाए सुरंगो के माध्यम से अपना रास्ता तय करती हैं।


इस तकनीक का उपयोग करने से जन विस्थापन एवं पर्यावरणीय समस्याओं में कमी तथा गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी होती हैं।



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