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भारतीय संविधान में न्यायपालिका स्वरूप

भारतीय संविधान में न्यायपालिका स्वरूप

 भारतीय संविधान में न्यायपालिका एकीकृत न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया है. भारतीय न्यायपालिका शीर्ष स्थान पर सर्वोच्च न्यायालय एवं उसके अधीन उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई है।


न्याय एवं नियन्त्रण की प्रणाली

न्याय की अवधारणा सामाजिक-आर्थिक एकता से प्रभावित है। भारतीय संविधान के स्थापत्यकारों ने न्याय का मानवीय पक्ष लेते हुए देश में संरचनात्मक न्यायिक प्रणाली की अवधारणा का मूर्त-विधान किया था। इस आलेख में इसी प्रवृत्ति को अंकित किया गया है।

 उच्च न्यायालय के अधीन अधीनस्थ न्यायालयों (जिला न्यायालय एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों) का गठन किया गया है। न्यायपालिका की यह एकीकृत व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम, 1935 से ग्रहण की गई है।

स्वतन्त्रता के पश्चात भारत में सर्वप्रथम 28 जनवरी, 1950 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय का उद्घाटन किया गया। इसका गठन भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत लागू संघीय न्यायालय के स्थान पर हुआ था। भारतीय संविधान के भाग-V में अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय के गठन, न्यायक्षेत्र, शक्तियाँ आदि का उल्लेख किया गया है।

 

सर्वोच्च न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय के गठन के समय, इसके न्यायाधीशों की संख्या एक मुख्य न्यायाधीश एवं सात अन्य न्यायाधीशों सहित कुल आठ निश्चित की गई थी। संसद ने वर्ष 1956 में अन्य न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाकर दस निश्चित की। उसके उपरान्त अन्य न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाकर वर्ष 1960 में 13, वर्ष 1977 में 17 तथा वर्ष 1986 में 25 निश्चित की गई। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 47 अन्य न्यायाधीशों सहित कुल 48 न्यायाधीश हैं।

 

सर्वोच्च न्यायलय

न्यायाधीशों की नियुक्ति

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह के बाद करता है। प्रायः सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य में न्यायाधीश बनाया जाता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाता है।

 

न्यायाधीशों की अर्हताएँ

सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्ति किए जाने के लिए आवश्यक है कि कोई व्यक्ति का भारत नागरिक हो और वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो या दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा हो या फिर व्यक्ति विशेष विख्यात विधिवेत्ता हो।

उपरोक्त अर्हताओं से यह स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए न्यूनतम आयु का कोई प्रावधान  नहीं किया गया है।

कार्यकाल

भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कार्यकाल के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रावधान नहीं किए गए हैं किन्तु उनकी सेवानिवृत्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित तीन उपबन्ध बनाए गए हैं।

  1.  वह 65 वर्ष की आयु तक पद पर बना रह सकता है। उसके मामले में किसी प्रश्न के उठने पर संसद द्वारा स्थापित संस्था इसका निर्धारण करेगी।
  2. वह राष्ट्रपति को लिखित त्याग पत्र दे सकता है।
  3. संसद की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा उसे पद से हटाया जा सकता है।
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3. न्यायाधीशों को हटाना

सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से राष्ट्रपति के आदेश से तभी हटाया जा सकता है, जब कदाचार या असमर्थता के आधार पर उसे हटाए जाने के लिए संसद के प्रत्येक सदन द्वारा उस सदन की कुल संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन को राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रख दिया जाए। न्यायाधीश जाँच अधिनियम, 1968 सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के सम्बन्ध में महाभियोग की प्रक्रिया का उपबन्ध करता है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं

a. निष्कासन प्रस्ताव 100 सदस्यों (लोकसभा के मामले में) या 50 सदस्यों (राज्यसभा के मामले में) द्वारा हस्ताक्षर करने के बाद अध्यक्ष/सभापति को दिया जाना चाहिए।

b. अध्यक्ष/सभापति इस प्रस्ताव को शामिल भी कर सकते हैं या इसे अस्वीकार भी कर सकते

c. यदि इसे स्वीकार कर लिया जाए तो अध्यक्ष / सभापति को इसकी जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित करनी होगी। समिति में शामिल होना चाहिए

  1. मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश,
  2. किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, और
  3. प्रतिष्ठित न्यायवादी।

d. यदि समिति न्यायाधीश को दुर्व्यवहार का दोषी या असक्षम पाती है तो सदन इस प्रस्ताव पर विचार कर सकता है।

e. विशेष बहुमत से दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित कर इसे राष्ट्रपति को भेजता है।

f. राष्ट्रपति न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करता है।

 

सर्वोच्च न्यायालय की अधिकारिता

प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

संविधान के अनुच्छेद-131 के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के निम्नलिखित पक्षकारों के मध्य किसी विवाद में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार रखता है

  1. संघ एक या एक से अधिक राज्यों के बीच
  2. संघ एक या अधिक राज्य एक तरफ तथा एक या अधिक राज्य दूसरी तरफ  
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य विवाद 

सर्वोच्च न्यायालय प्रायः नागरिकों द्वारा प्रस्तुत वाद को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत नहीं स्वीकार करता, परन्तु ऐसा वाद जिसमें कोई ऐसा तथ्य या विधि का प्रश्न अन्तरित हो, जिस पर किसी विधिक अधिकार का अस्तित्व निर्भर हो, तो न्यायालय इसे स्वीकार कर सकता है।

Important Notes

v  भारत के प्रथम मुख्य न्यायाधीश एचजे कानिया थे।

v  सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के लिए वरिष्ठता क्रम की अवहेलना सर्वप्रथम वर्ष 1973 में की गई, जब एएन राय को तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों से ऊपर भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया।

v  वर्ष 1977 में वरिष्ठता क्रम की अवहेलना करके एमयू बैग को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया।

v  प्रथम महाभियोग का मामला सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी (1991-93) का है। यद्यपि जाँच समिति ने उन्हें दुर्व्यवहार का दोषी पाया पर उन पर महाभियोग की प्रक्रिया आरोपित नहीं की जा सकी क्योंकि काँग्रेस पार्टी के मतदान से अलग होने के कारण महाभियोग प्रक्रिया लोकसभा में पारित नहीं हो सकी।

v  जब मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त हो या अस्थायी रूप से मुख्य न्यायाधीश अनुपस्थित हो या मुख्य न्यायाधीश अपने दायित्वों का निर्वहन करने में असमर्थ हो, तो राष्ट्रपति किसी न्यायाधीश को भारत के सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करता है।

v  जब कभी कोरम पूरा करने में स्थायी न्यायाधीशों की संख्या कम हो रही हो तो भारत का मुख्य न्यायाधीश किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को अस्थायी काल के लिए सर्वोच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है। ऐसा वह सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श एवं राष्ट्रपति की पूर्ण मंजूरी के बाद ही कर सकता है।

v  किसी भी समय भारत का मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश से अल्पकाल के लिए सर्वोच्च न्यायालय में कार्य करने का अनुरोध कर सकता है। ऐसा सम्बन्धित व्यक्ति एवं राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही किया जा सकता है।

v  भारत का सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली में स्थित है, लेकिन यह उन सभी स्थानों पर बैठक कर सकता है, जहाँ राष्ट्रपति से परामर्श करके भारत का मुख्य न्यायाधीश निश्चित करे। अब तक हैदराबाद एवं श्रीनगर में इस प्रकार की बैठकें हो चुकी हैं।

v  वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर हैं।

 

अपीलीय क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय की अपीलीय अधिकारिता के तहत सांविधानिक सिविल, फौजदारी तथा विशिष्ट क्षेत्राधिकार आते हैं। साविधानिक मामले में विधि के सारवान प्रश्न से सम्बन्धित वाद आते हैं। सिविल मामलों में, उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, या अन्तिम आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। उच्च न्यायालय की दाण्डिक कार्यवाही के विरुद्ध भी सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। जबकि संविधान के अनुच्छेद-136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय अपनी प्रेरणा से किसी भी न्यायालय या अधिकरण के फैसले के विरुद्ध (सैनिक न्यायालय को छोड़कर) अपील की अनुमति दे सकता है।

परामर्शीय क्षेत्राधिकार

संविधान (अनुच्छेद 143) राष्ट्रपति को दो श्रेणियों के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से राय लेने का अधिकार देता है। पहला सार्वजनिक महत्त्व के किसी मसले पर विधिक प्रश्न उठने पर तथा दूसरा किसी पूर्व संवैधानिक सन्धि, समझौते प्रसंविदा आदि सनद मामलों पर किसी विवाद के उत्पन्न होने पर पहले मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपना मत दे भी सकता है और देने से इन्कार भी कर सकता है। दूसरे मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को अपना मत देना अनिवार्य है। दोनों ही मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का मत सिर्फ सलाह होती है। इस तरह, राष्ट्रपति इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह इस सलाह को माने। यद्यपि सरकार अपने द्वारा निर्णय लिए जाने के सम्बन्ध में इसके द्वारा प्राधिकृत विधिक सलाह प्राप्त करती है।

अभिलेख न्यायालय

'संविधान के अनुच्छेद-129 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान किया गया है। अभिलेख न्यायालय के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के पास निम्नलिखित दो शक्तियाँ हैं।

v  सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाही एवं उसके फैसले सार्वकालिक अभिलेख साक्ष्य के रूप में रखे जाएँगे। इन अभिलेखों पर किसी अन्य अदालत में चल रहे मामले के दौरान प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। उन्हें विधिक सन्दर्भों की तरह स्वीकार किया जाएगा।

v  इसके पास न्यायालय की अवमानना पर दण्डित करने का अधिकार है। इसमें छह वर्ष के लिए सामान्य जेल या ₹ 2000 तक अर्थदण्ड या दोनों शामिल हैं (2013) 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि दण्ड देने की यह शक्ति केवल सर्वोच्च न्यायालय में निहित है बल्कि ऐसा ही अधिकार उच्च न्यायालयों, अधीनस्थ न्यायालयों, पंचाटों को भी प्राप्त हैं।

न्यायिक पुनरावलोकन

सर्वोच्च न्यायालय में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति निहित है। इसके तहत वह केन्द्र राज्य दोनों स्तरों पर विधायी कार्यकारी आदेशों की सांविधानिकता की जाँच की जाती है। इन्हें अधिकारातीत पाए जाने पर इन्हें -विधिक असंवैधानिक और अवैध (बालित और शून्य घोषित किया जा सकता है) तदुपरान्त सरकार द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।

न्यायादेश क्षेत्राधिकार

संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों के रक्षक के रूप में स्थापित किया है। सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार प्राप्त है कि वहप्रत्यक्षीकरण, परमादेश, उत्प्रेषण, प्रतिषेध एवं अधिकार पृच्छा आदि पर न्यायादेश जारी कर विक्षिप्त नागरिक के मूल अधिकारों की रक्षा करे। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय को मूल न्यायाधिकार प्राप्त हैं और नागरिक को अधिकार है कि वह बिना अपील याचिका के सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है।

उच्च न्यायालय

भारत की एकीकृत न्याय व्यवस्था के मध्य बिन्दु के रूप में उच्च न्यायालयों का प्रावधान किया गया है। इसके लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद-214 के अन्तर्गत प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। परन्तु संसद दो या दो अधिक राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की व्यवस्था कर सकती है।

गठन प्रत्येक उच्च न्यायालय का गठन मुख्य न्यायाधीश व ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर होता है, जिन्हें समय-समय पर राष्ट्रपति नियुक्त करता है। संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या के बारे में प्रावधान नहीं है। राष्ट्रपति कार्य की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर इनकी संख्या निर्धारित करते हैं।

न्यायाधीशों की नियुक्ति

उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा, भारत के मुख्य न्यायधीश और सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद की जाती है। अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति में सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश से भी परामर्श किया जाता है। दो या अधिक राज्यों के साझा उच्च न्यायालय में नियुक्ति में राष्ट्रपति सभी सम्बन्धित राज्यों के राज्यपालों से भी परामर्श करता है। 

अर्हताएँ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए व्यक्ति के पास निम्न योग्यताएँ होनी चाहिए

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसे भारत के न्यायिक कार्य में दस वर्ष का अनुभव हो, अथवा वह उच्च न्यायालय (या न्यायालयों) में लगातार दस वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो।

कार्यकाल

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के कार्यकाल के सम्बन्ध में निम्न प्रावधान किए गए हैं

  • 62 वर्ष की आयु तक पद पर रहता है। उसकी आयु के सम्बन्ध में किसी भी प्रश्न का निर्णय राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करता है। इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति का निर्णय अन्तिम होता है।
  • वह, राष्ट्रपति को त्याग-पत्र भेज सकता है।
  • संसद की सिफारिश से राष्ट्रपति उसे पद से हटा सकता है।
  • उसकी नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में हो जाने पर या उसका किसी दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण हो जाने पर वह पद छोड़ देता है।

उच्च न्यायालय की अधिकारिता

 भारतीय सांविधान उच्च न्यायालय की साधारण अधिकारिता के सम्बन्ध में कोई उपबन्ध नहीं करता है। उच्च न्यायालय की प्रारम्भिक अधिकारिता अत्यन्त सीमित है। वह मूलतः एक अपीलीय न्यायालय ही है। वह अनुच्छेद- 226 के अन्तर्गत रिट जारी करने की शक्ति रखता है। ये सर्वोच्च न्यायालय के अनुच्छेद-32 में प्राप्त लेख जारी करने की शक्ति के समान ही हैं। उच्च न्यायालय की यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति से अधिक व्यापक है।

उच्च न्यायालय विधि के सारवान प्रश्न अन्तर्निहित वादों को अपने पास, अधीनस्थ न्यायालयों से माँग सकता है। अधीनस्थ न्यायालयों की अपील उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है, लेकिन तभी, जब दण्डादेश

सात वर्ष या उससे अधिक हो। मृत्युदण्ड की स्थिति में दण्ड की पुष्टि, उच्च न्यायालय से आवश्यक है। उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है अर्थात उसे अपने अपमान के लिए दण्ड देने का अधिकार है। उच्च न्यायालय अपने निर्णयों एवं कार्यवाहियों को लिखित रूप में रखता है, जिन्हें अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष पूर्व निर्णयों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय उनके अधीनस्थ न्यायालयों का नियन्त्रण रखता है। इसके अन्तर्गत वह राज्य न्यायिक सेवा जिला न्यायाधीश के पद से अपर पद धारण करने वाले व्यक्तियों के पदस्थापना, पदोन्नाति आदि का प्रशासन करता है।

उच्च न्यायालय एवं उनके न्यायिक क्षेत्र

 नाम 

स्थापना वर्ष

न्यायिक क्षेत्र

इलाहाबाद

1866

उत्तर प्रदेश

आन्ध्र प्रदेश

1954

आन्ध्र प्रदेश

बम्बई

1862

महाराष्ट्र गोवा,

कलकत्ता

1862

पश्चिम बंगाल एवं अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह

छत्तीसगढ़

2000

छत्तीसगढ़

दिल्ली

1966

दिल्ली

गुवाहाटी

1948

असम, मणिपुर, मेघालय नागालैण्ड, त्रिपुरा, मिजोरम

और अरुणाचल प्रदेश

गुजरात

1960

गुजरात

हिमाचल प्रदेश

1971

हिमाचल प्रदेश

जम्मू एवं कश्मीर

1928

जम्मू एवं कश्मीर

झारखण्ड

2000

झारखण्ड

कर्नाटक

1884

कर्नाटक

केरल

1958

केरल

मध्य प्रदेश

1956

मध्य प्रदेश

मद्रास

1962

तमिलनाडु और पुदुचेरी

ओडिशा

1948

ओडिशा

पटना

1916

बिहार

पंजाब और हरियाणा

1875

पंजाब हरियाणा और हरियाणा

राजस्थान

1949

राजस्थान

सिक्किम

1975

सिक्किम

उत्तराखण्ड

2000

उत्तराखण्ड

v

  भारत में उच्च न्यायालय की स्थापना सर्वप्रथम वर्ष 1862 में कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास उच्च न्यायालयों के रूप में हुई थी।

v  इलाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना वर्ष 1866 में हुई।

v  वर्तमान में भारत में 25 उच्च न्यायालय कार्यरत हैं।

v  दिल्ली ऐसा संघ राज्य क्षेत्र है, जिसका अपना उच्च न्यायालय (1966 में स्थापना) है।

 

न्यायाधीशों को हटाना

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समान ही महाभियोग की प्रक्रिया के तहत उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कदाचार या असमर्थन के आधार पर हटाया जा सकता है।

न्यायाधीशों का स्थानान्तरण 

भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद राष्ट्रपति एक न्यायाधीश का स्थानान्तरण एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में कर सकता है। स्थानान्तरण पर यह वेतन के अतिरिक्त ऐसे प्रतिपूरक भत्तों का हकदार है, जो संसद द्वारा निर्धारित किए जाएँ।

रिट जारी करने की शक्ति

न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न प्रकार की रिट जारी की जा सकती हैं।

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण इसका अर्थ है व्यक्ति को सशरीर उपस्थिति करने की माँग। यह उस मामले में लागू होती हैं, जहाँ किसी व्यक्ति के बारे में कहा जाता है कि उसे अवैध रूप से निरुद्ध किया गया है।

2. परमादेश यह वैध रूप से कार्य करने का आदेश है। इसके अधीन अवैध कार्य को रोका जाता है।

3. प्रतिषेध यह सर्वोच्च न्यायालय किसी अवर या न्यायाधिकरण को जारी करता है और इसका उद्देश्य अधिकारिता का उल्लंघन करने से मना किया जाना है। यह केवल न्यायिक और अर्द्ध न्यायिक निकायों के विरुद्ध जारी की जा सकती है।

4. अधिकार पृच्छा इस रिट में माँग की जाती है कि लोक पद को धारण करने के किसी व्यक्ति के दावे के बारे में लोक हित में कानूनी स्थिति को स्पष्ट किया जाए।

5. उत्प्रेषण यह रिट केवल न्यायिक एवं अर्द्ध न्यायिक व्यक्तियों एवं प्राधिकरण के खिलाफ उस समयः जारी की जाती है, जब वह अपनी अधिकारिता का उल्लंघन करके कोई कार्य करता है।

अधीनस्थ न्यायालय

उच्च न्यायालय के अधीन अधीनस्थ न्यायालय होते हैं, ये उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार जिला एवं निम्न स्तरों पर कार्य करते हैं। संविधान के भाग-VI में अनुच्छेद-233 से 337 तक अधीनस्थ न्यायालयों के सम्बन्ध में उपबन्ध किए गए हैं। जिला न्यायालयों एवं अन्य न्यायालयों में न्यायिक सेवा से सम्बद्ध व्यक्ति की पदस्थापना, पदोन्नति एवं अन्य मामलों पर नियन्त्रण का अधिकार राज्य के उच्च न्यायालय का होता है।

जिला न्यायाधीश

जिला न्यायाधीश, जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है। उसे सिविल और अपराधिक मामलों में मू और अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है। दूसरे शब्दों में, जिला न्यायाधीश, सत्र न्यायाधीश भी होता है। जब वह दीवानी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे जिला न्यायाधीश' कहा जाता है तथा जब वह फौजदारी मामलों का सुनवाई करता है तो उसे 'सत्र न्यायाधीश' कहा जाता है। जिला न्यायाधीश के पास न्यायिक एवं प्रशासनिक दोनों प्रकार की शक्ति होती है। उसके पास जिले के अन्य सभी अधीनस्थ न्यायालयों का निरीक्षण करने की शक्ति भी होती है। जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापना एवं पदोन्नति राज्यपाल द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है। वह व्यक्ति जिसे जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति किया जाता है, उसमें निम्न योग्यताएँ होनी चाहिए

  • वह केन्द्र या राज्य सरकार में किसी सरकारी सेवा में कार्यरत न हो।
  • उसे कम से कम सात वर्ष का अधिवक्ता का अनुभव हो, तथा उच्च न्यायालय ने उसकी नियुक्ति की सिफारिश की हो।

अधीनस्थ न्यायालय की अधिकारिता

अधीनस्थ न्यायालय की संगठनात्मक संरचना अधिकार क्षेत्र एवं अन्य शर्तों का निर्धारण राज्य विशेष द्वारा किया जाता है। यद्यपि एक राज्य से दूसरे राज्य में अधीनस्थ न्यायालय की संरचनात्मक प्रकृति भिन्न हो सकती है। तथापि सामान्य रूप से उच्च न्यायालय से नीचे के दीवानी एवं फौजदारी न्यायालयों के तीन स्तर होते हैं, जिन्हें रेखाचित्र से समझा जा सकता है।

 

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