किसी मानव समूह के ऐतिहासिक विकास क्रम में जीवन यापन की जो विशिष्ट शैली विकसित होती हैं, वही उस समूह की संस्कृति कहलाती है। इसी के आधार पर एक मानव समूह दूसर समूह से पृथक दिखता है, क्योंकि प्रत्येक संस्कृति के अपने विशिष्ट सांस्कृतिक तत्व (कला, विश्वास, धर्म, आचार, त्यौहार, पर्व, उत्सव आदि) होते हैं।
चित्रकला
प्राचीन काल - राज्य में चित्रकला के सबसे प्राचीनतम नमूने शैल चित्र के रूप में लाखु, ग्वारख्या, किमनी गांव, ल्वेथाप, हुडली, पेटशाल, फलसीमा आदि गुफाओं में देखने को मिलते हैं।
अल्मोड़ा के लाखु गुफा के शैल चित्र में मानव को अकेले या समूह में नृत्य करते हुए चित्रित किया गया है। इसके अलावा विभिन्न पशुओं को भी चित्रित किया गया है। इन चित्रों को रंगों से सजाया गया है।
ग्वारख्या गुफा (चमोली) में अनेक पशुओं का चित्रण किया गया है जो कि लाखु के चित्र से अधिक चटकदार हैं।
किमनी गांव (चमोली) के शैल चित्र हथियार एवं पशुओं के हैं, जिन्हें सफेद रंग से रंगा गया है।
ल्वेथाप (अल्मोड़ा) के शैलचित्र में मानव को शिकार करते और हाथों में हाथ डालकर नृत्य करते दिखाया गया है।
हुडली गुफा (उत्तरकाशी) के शैलचित्र में नीले रंग का प्रयोग किया गया है।
मध्य एवं आधुनिक काल - 16वीं शदी से लेकर 19वी शदी तक राज्य में चित्रकला की 'गढ़वाल शैली' प्रचलित थी। गढ़वाल-शैली पहाड़ी-शैली की ही एक धारा है, जिसका विकास गढ़वाल नरेशों के संरक्षण में हुआ।
सन 1658 में गढ़वाल नरेश पृथ्वीपति शाह के समय मुगल शाहजादा सुलेमान शिकोह ने अपने दरबार के दो चित्रकारों (तँवर श्यामदास और उसका पुत्र हरदास) को लेकर गढ़वाल आया ।
.हरदास का पुत्र हीरालाल (स्पष्ट रूप से गढ़वाल-शैली का सूत्रपात कर्ता) का पुत्र मंगतराम का पुत्र मोलाराम तोमर (1743 से 1833 ई.) था, जो गढ़वाल शैली का सबसे महान चित्रकार था। इसे प्रदीपशाह, ललितशाह, जय कीर्तिशाह व प्रद्युम्नशाह का संरक्षण मिला। जीवन के अन्त तक मोलाराम श्रीनगर में अपनी चित्रशाला में कला साधना में तल्लीन रहे। कुँवर प्रीतम शाह मोलाराम से चित्रकला सीखने टिहरी से श्रीनगर जाते थे।
मोलाराम के बाद गढ़वाल शैली की अवनति होने लगी। उसके वंशज ज्वालाराम, शिवराम, अजबराम, आत्माराम, तेजराम, आदि 'गढ़वाल-शैली' के अवनतिकालीन चित्रकार हुए।
मोलाराम द्वारा बनाए गए कुछ चित्र हैं - चंद्रमुखी, मयंक मुखी, उत्कंठिता नायिका, जयदेव वजीर, दंपती (प्रद्युम्नशाह व रानी का चित्र ), राधाकृष्ण मिलन, विप्रलम्भा नायिका, सितारप्रिया, हिंडोला, मस्तानी, वासकशटिया नायिका आदि।
मोलाराम एक चित्रकार के साथ-साथ दार्शनिक, कवि व लेखक भी थे। इनकी कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैं - गढ़राज-वंश काव्य, गढ़गीता- संग्राम (नाटक), मन्मथ सागर आदि ।
इस शैली का प्रमुख विषय था - रूक्मिणी-मंगल, नायिका भेद, रामायण, महाभारत, कामसूत्र, दशावतार, अष्टदुर्गा, नवग्रह आदि।
मुकन्दीलाल लिखते है कि, “नारी-अंकन में कोई अन्य पहाड़ी शैली गढ़वाल-कला की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी। यहाँ वे अधिक छरहरी और मोहक दिखायी देती हैं। "
विनाशकारी भूकम्प (1803) में श्रीनगर स्थित गढ़वाल शैली के चित्रों का खजाना काफी मात्रा में नष्ट हो गया था। फिर भी कुछ चित्र निम्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं -
(1) 'मोलाराम आर्ट T गैलरी' श्रीनगर (पौढ़ी)
(2) महाराजा नरेन्द्रशाह संग्रह, नरेन्द्र नगर (टिहरी)
(3) कुँवर विचित्रशाह संग्रह, टिहरी
(4) राव वीरेन्द्रशाह 1 संग्रह, देहरादून
(5) गढ़वाल विश्वविद्यालय संग्रहालय, श्रीनगर (बैरिस्टर मुकन्दीलाल के संग्रह से),
(6) गिरिजा किशोर जोशी 1 संग्रह, अल्मोड़ा,
(7) भारत कला भवन, वाराणसी,
(8) सीताराम शाह संग्रह, वाराणसी
(9) राज्य संग्रहालय, लखनऊ,
(10) राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली,
(11) बै. मानक संग्रह, पटना
(12) कस्तूरी भाई, लाल भाई संग्रह, अहमदाबाद,
(13) अजित घोष संग्रह, कोलकाता,
(14) आर. के. कजरीवाल संग्रह, कोलकाता।
उपरोक्त संग्रहालयों के अलावा लंदन (ब्रिटेन), पेरिस (फ्रांस), कैम्ब्रिज (ब्रिटेन) तथा बोस्टन (अमेरिका) के संग्रहालयों में भी गढ़वाल शैली के कुछ चित्र देखने को मिल जाते है।
मोलाराम के बंशजों के बाद अथवा समकालीन प्रसिद्ध चित्रकारों में चैतु व माणकू का नाम आता है। चैतु को कृष्ण लीलाओं के चित्रण पर ख्याति प्राप्त थी। चैतू की 13 चित्रों की रूक्मिणीहरण चित्रमाला वाराणसी कलाभवन में सुरक्षित है।
“आख मिचौली" भी उनकी एक प्रसिद्ध रंगीन चित्र है। माणकू ने जयदेव के गीतगोविंद का चित्रण सन् 1730 में किया था।
गढ़वाल शैली के तथ्यों को उद्यघाटित करने वाली महत्व पूर्ण पुस्तकें हैं -
(1) बैरिस्टर मुकुन्दी लाल की अंग्रेजी में लिखित 'गढ़वाल पेंटिंग', 'सम नोट्स आन मोलाराम' और 'गढ़वाल स्कूल ऑफ पेंटिंग'।
(2) वि. आर्चर की 'गढ़वाल पेंटिंग (अंग्रेजी)
(3) डॉ. कठोच की 'गढ़वाल चित्रशैली : एक सर्वेक्षण, तथा
(4) किशोरी लाल वैद्य की 'पहाड़ी चित्रकला', आदि।
लोकचित्र
चित्रकला की गढ़वाल शैली के अलावा राज्य में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर ऐंपण (छिपण), ज्यूंति मातृका, प्रकीर्ण पौ, डिकारे, पट्ट आदि लोक चित्र बनाने की परम्परा है। इनका संक्षिप्त वर्णन अधोलिखित है।
ऐंपण (छिपण) - ऐंपण से तात्पर्य लीपने या सजावट करने से हैं, जो कि किसी मांगलिक या धार्मिक अवसर पर देहरी या आंगन में विस्वार (चावल के आटे का घोल) तथा लाल या सफेद मिट्टी से सुन्दर चित्रों के रूप में बनाई जाती है। इसके तहत सूर्य, चंद्र, स्वास्तिक, शंख, घंटा, विविध पुष्प, बेल, सर्प आदि आकृतियाँ बनायी जाती हैं। इन्हीं आकृतियों को चौक, रंगोली, अल्पना आदि नामों से जाना जाता है।
थापा चित्र - इस प्रकार के चित्र त्योहार व मांगलिक अवसरों पर पिसे चावल व अन्य रंगों से बनाए जाते हैं।
नात या टुपुक चित्र - बिस्वार व गेरू की सहायता से रसोई घरों की दिवारों पर देवी देवताओं के चित्र बनाए जाते हैं।
वसुधारा चित्र - कुछ खास अवसरों पर घर के पूजा स्थल व देहरी को गेरू सें लीपकर विस्वार के पतले घोल की धारा डाल कर चित्र बनाए जाते हैं।
ज्यूंति मातृका चित्र - इसमें विभिन्न रंगों के प्रयोग से देवी देवताओं के चित्र बनाये जाते हैं। ऐसा चित्र प्रायः जन्माष्टमी, दशहरा, नवरात्रि, दीपावली आदि त्यौहारों या मांगलिक अवसर पर बनाया जाता है।
प्रकीर्ण चित्र - इसके अन्तर्गत रंग व ब्रश या अंगूलियो के माध्यम से कागज, दरवाजों, चौराहों आदि पर विभिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते हैं।
लक्ष्मी पौ चित्र - दीपावली के अवसर पर घर के मुख्य द्वार से तिजोरी या पूजागृह तक लक्ष्मी के पद या पांव चिन्ह बनाये जाते हैं। इन्हें पौ कहा जाता है।
कुछ अन्य चित्रांकन - अन्य चित्रांकनों में आरती की थाली पर 'सेली'; शुभकार्य में बुरी आत्माओं से रक्षा हेतु 'स्यो'; मंडप पर 'खोड़िया'; शरीर पर गाजो या गोदना (नाम या फूल-पत्ती या देवी देवता के चित्र); प्रवेश द्वारों पर चिपकाने हेतु लाल-पीले-हरे रंगों के म्वाली आदि प्रमुख हैं।