उत्तराखण्ड प्राकृतिक वनस्पतियों का खजाना है। चरक संहिता में इस क्षेत्र को वानस्पतिक बगीचा और हिमालय को हिमवंत औषधं भूमिनाम कहा गया है। राज्य में लगभग 500 प्रकार की जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। इनमें से कई पौधों को स्थानीय लोग सब्जी या चटनी के रूप में खाने, तेल निकालने, जूस पीने तथा औषधियाँ (जैसे किल्मोड़ा को पीलिया में, घोड़चक को अतिसार में, मरोड़फली को सर्पविष और चिरायता को ज्वर उतारने में) के रूप में प्रयोग करते रहे हैं। ये पौधे राज्य के आय के प्रमुख स्रोत हैं हैं। इनसे अनेकों प्रकार की आयुर्वेदिक, यूनानी, तिब्बती, एलोपैथिक एवं होमियोपैथिक आदि औषधियाँ, सौन्दर्य प्रसाधन, खाद्य पदार्थ तथा रंग आदि बनाये जाते हैं। ये जड़ी-बूटियाँ मुख्य रूप से तीन उद्योगों फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री, परफ्यूम एवं कास्मेटिक इंडस्ट्री व फूड इंडस्ट्री में प्रयुक्त होती हैं। राज्य में मिलने वाले कुछ प्रमुख औषधीय पौधे अधेलिखित हैं। Read Also : उत्तराखंड के प्रमुख ग्लेशियर व हिमनद उत्तराखंड की प्रमुख ताल एवं झीलें
झूला - राज्य में 5500 मी. की ऊँचाई तक झूला वनस्पति की मक्कू, छड़ीला आदि कई प्रजातियाँ पाई जाती है। राज्य को इसके व्यापार से बहुत अधिक आय होती है। इसका उपयोग सांभर व गरम मसाला, रंग-रोगन, हवन सामग्री बनाने में व रेजिनोइड निकालने में किया जाता है जो सुगन्धी में प्रयोग किया जाता है। प्रथम ग्रेड का झूला फ्रांस को निर्यात किया जाता है।
ब्राह्मी - यह एक बहु-वर्षीय शाक है जो कि बुद्धिवर्द्धक है। हरिद्वार में यह बहुतायत में मिलता है।
धिंगारू – यह 3600 मीटर की ऊँचाई तक उगता है। इसके फल को खाया जाता है। इस पौधे का सभी भाग हृदय रोग के लिए फायदेमंद है।
शिकाकाई - यह 2500 मी. की ऊँचाई तक बहुतायत में पाया जाता है। इसके पक्के फलों से आयुर्वेदिक शैम्पू बनाया जाता है।
भीमल - इस पौधे का सभी भाग उपयोगी है। इसकी कोमल शाखाओं को कूटकर शैम्पू के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
बिच्छु या कण्डाली - राज्य में बहुतायत में पाई जाने वाली यह औषधीय घास यूरोप मूल की है। इसकी पत्तियों को सब्जी के रूप में खाया जाता है। विटामिन तथा खनिज लवणों से युक्त यह पौधा एमीनिया रोग का नाशक है।
भैंकल – 4000 मीटर की ऊँचाई तक पाये जाने वाले इस पौधे के बीज से तेल निकालकर भोटिया लोग खाते है। गठिया रोग के लिए इसका तेल लाभकारी है।
श्यांवाली (निर्गुण्डी) - यह वनस्पति राज्य में 1000 मीटर की ऊँचाई तक पाई जाती है। इस पौधे का हर भाग औषधीय है। इसकी पत्तियाँ गठियाँ और कटे के लिए लाभकारी है तो इसके पुष्पों का उपयोग पेचिस, हैजा, बुखार, यकृत एवं हृदय की बीमारियों को ठीक करने में किया जाता है।
किलमोड़ा - इसे दारूहरिद्रा या जरिश्क भी कहते हैं। यह एक शीतोष्ण पौधा है। इसकी अर्क, फल, जड़ की छाल, तना व लकड़ी उपयोग में लाई जाती हैं। इसकी जड़ों में व लकडियों में बरबेरियन हाइड्रोक्लोराइड पाया जाता है। इसका रसोद आँखों के रोगोपचार से प्रयोग किया जाता है। यह पौधा वन्य जीव अधिनियम की प्रथम श्रेणी में रखा गया है।
ममीरा (पीली जड़ी ) - इसकी जड़ें पीले रंग की होती है। जिसको ममीरा गाँठ (पीली जड़ी) के नाम से बाजार में बेचा जाता है। इसकी जड़ों से बना सुरमा आँख के लिये उपयोगी होता है। जड़े टॉनिक के रूप में भी प्रयोग की जाती हैं।
अमेश - इसे हिप्पोपी नाम से भी जाना जाता है। इसमें राज्य के अन्य पौधों की अपेक्षा अधिक मात्रा में कैल्सियम, फास्फोरस और लौह तत्व मिलते है। इसका उपयोग दवा से लेकर सौन्दर्य प्रशासन तथा टानिक बनाने तक में किया जाता है। इसकी जड़ें मिट्टी में नाइट्रोजन को स्थिर करती हैं। अभी तक इसके फलों को स्थानीय लोगों द्वारा केवल चटनी बनाने व टमाटर के विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। लेकिन अब राज्य सरकार ने इसका व्यावसायिक उपयोग शुरू कर दिया है। चीन इसके निर्यात से पचासों करोड़ डॉलर पैदा करता है।
धुनेर – यह पौधा 2000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है, जो कि टैक्सस प्रजाति का है। अभी हाल में अमेरिका में इस प्रजाति के पौधे से कैन्सर के इलाज के लिए टैक्साल नामक रसायन प्राप्त किया गया है।
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उत्तराखंड में हुई प्राकृतिक आपदाएं
उत्तराखंड का राज्य पुष्प, राज्य चिन्ह, राज्य पक्षी, राज्य वृक्ष एवं राज्य पशु
ऊँचाई के क्रम में मिलने वाली कुछ प्रमुख उपयोगी वनस्पतियाँ
लगभग 1000 मीटर ऊँचाई तक अनंतमूल, गिलोय, पणिया, वनतुलसी, अदरख, तेजपात, अस्वगंधा, इलाइची (पिथौरागढ़), सतावरी, मैंथा, भांग, आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं।
लगभग 1000 मी. से 1500 मी. की ऊंचाई तक केसर, ब्रधि, बलोरियम, चाय, पाइरेथ्रम, जिरेनियम, कड़वी, हंसरान आदि वनस्पतियां पाई जाती हैं।
लगभग 1500 मीटर से 2700 मी. की ऊँचाई तक समोया, पाती, वन अजवाइन, चिरायता, नैर, बज्रदंती, महाथेदा, वनपसा, धतूरा, कड़वी, पाषाण भेद मकोय, कपूर, कचरी, ममिरी, हंसरान, रतनजोत, डोलू, हींग, सोमलता आदि वनस्पतियां पायी जाती हैं।
लगभग 2700 मीटर से अधिक ऊँचाई पर कुटकी, वन ककड़ी, साल मिश्री, लेवेंडर, निरविषि, रीठा, गंद्रायण आदि वनस्पतियां मिलती हैं। Read Also : उत्तराखंड के वन क्षेत्र, वन आच्छादित क्षेत्र
जड़ी-बूटी संग्रहण, विपणन, संरक्षण एवं शोध
सामान्यतः यहाँ की अधिकांश जड़ी बूटियाँ प्राकृतिक रूप से उगती हैं और विभिन्न संस्थाओं द्वारा उनका संग्रहण कराया जाता है। लेकिन वनस्पतियों जिनकी मांग और मूल्य अधिक है जैसे- रीठा, हरड़, तेजपात, बहेड़ा, आँवला आदि का रोपणकर उत्पादन भी किया जाता है। राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में सर्वप्रथम 1903 में उ.प्र. कृषि निदेशालय के निर्देशन में बैलाडोना की खेती शुरू की गयी थी। आज राज्य में अफीम, कुटकी, पाइरेथम, जिरेनियम आदि अनेक औषधियों एवं बायो-डिजल के लिए जेट्रोफा की खेती की जाती है।
1972 से जड़ी-बूटियों के संग्रहण का कार्य सहकारिता विभाग के जड़ी-बूटी विकास योजना के तहत शुरू किया गया।
1980 से जड़ी-बूटियों के संरक्षण के लिए जिलेवार भेषज सहकारी संघों की स्थापना की गई। वर्तमान में भेषज सहकारी संघों के अलावा कुछ अन्य संस्थाएं भी जड़ी-बूटियों के संरक्षण, संग्रहण तथा विपणन में लगी हैं, वे अधोलिखित हैं --
जड़ी-बूटी और औषधीय क्षेत्र में शोध एवं विकास से सम्बंधित राज्य में निम्न संस्थाएं हैं।
राज्य में औषधीय पदार्थों का संग्रहण वन प्रबंधन अधिनियम 1982 के तहत किया जाता है। इस अधिनियम के तहत राज्य की 114 जड़ी-बूटियां प्रतिबंधित हैं। इसके अलावा भारतीय आयात प्राधिकरण ने 44 पौधों के आयात पर प्रतिबन्ध लगाया है। जैसे- कुटकी (पिकोराइला कुर्वा), जटामासी (नार्डोस्टेचिस), अतीस ( एकोनाइटम हिटिरोफाइलम), वन ककड़ी (पोडोफाइलम हैक्जेण्डम) आदि औषधीय प्रजाति के पौधे ।
राज्य को हर्बल स्टेट घोषित करते हुए जड़ी-बूटी के समग्र विकास हेतु मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक औषधीय पादप बोर्ड का गठन किया गया है।
संगंध पादप कृषिकरण, प्रसंस्करण एवं विपणन हेतु जड़ी बूटी शोध एवं संस्थान के अन्तर्गत स्वतन्त्र इकाई के रूप में संगंध पादप केन्द्र, सेलाकुई की स्थापना की गई है।
जड़ी-बूटी विपणन को सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से ऋषिकेश, टनकपुर एवं रामनगर में जड़ी-बूटी मण्डी की स्थापना की गयी है।
राज्य में 29 जड़ी-बूटी पौधालयों एवं ऋषिकेश के मुनि की रेती में एक हर्बल गार्डन की स्थापना की गई है तथा 473 पौधालयों में जड़ी-बूटी पौधों का उत्पादन किया गया।
हरिद्वार में जड़ी-बूटी के 300 से अधिक तथा सेलाकुई (देहरादून) में 184 उद्योग स्थापित हो रहे हैं।