राष्ट्रीय वन नीति 1998 के अनुसार देश के कुल क्षेत्रफल के 33% (पर्वतीय क्षेत्रों में कम से कम 60% और मैदानी क्षेत्रों में कम से कम 25%) भाग पर वन होना आवश्यक है। भारत में वनों की स्थिति पर केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का 16वां द्विवार्षिक रिपोर्ट 30 दिस. 2019 को जारी किया गया, जिसके अनुसार राज्य में वन की स्थिति निम्न प्रकार हैं -
15वें वन रिपोर्ट के अनुसार राज्य के कुल क्षेत्रफल के 45.43% भाग ( 24,295 वर्ग किमी.) पर वनाच्छादन था, जबकि 16वें रिपोर्ट के अनुसार 45.44% भाग (24,303.04 वर्ग किमी.) पर वनाच्छादन है।
इस प्रकार 16 वें रिपोर्ट के अनुसार राज्य के कुल वनाच्छादन में 8.04 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है।
15वें वन रिपोर्ट के अनुसार राज्य के कुल वन क्षेत्रफल (24,295 वर्ग किमी.) में से 20.45% भाग पर अति सघन वन, 53.03% भाग पर मध्यम सघन वन व 26.51% भाग पर खुले वन थे।
15वें वन रिपोर्ट के अनुसार राज्य के कुल क्षेत्रफल के 1.43% (767 वर्ग किमी.) भाग पर वृक्ष आच्छादन था।
16वें वन रिपोर्ट के समय राज्य में रिकॉर्डेड वन का क्षेत्रफल 37999.600 वर्ग किमी. है जो कि राज्य के कुल क्षेत्रफल का 71.05% है।
रिकॉर्डेड वन-क्षेत्र से तात्पर्य ऐसे क्षेत्र से है, जिन्हें राज्य सरकार वन-क्षेत्र घोषित कर चुकी होती है, चाहे उस पर वन हो या न हों। रिकॉर्डेड वन क्षेत्र के अन्तर्गत कई प्रकार के वन हैं। जैसे आरक्षित वन, संरक्षित वन, सिविल सोयम वन, निजी वन व अवर्गीकृत वन आदि।
प्रदेश के कुल रिकॉर्डेड (अभिलिखित) वन क्षेत्र में 26547 वर्ग किमी. आरक्षित वन, 154.02 वर्ग किमी. संरक्षित वन, 9730.55 वर्ग किमी. सिविल एवं सोयम वन, 123.51 वर्ग किमी. निजी वन तथा 1444.51 वर्ग किमी. अवर्गीकृत वन हैं।
प्रबंध की दृष्टि से प्रदेश के कुल वन में 70.46% वन विभागाधीन, 13.76% राजस्व विभागाधीन, 15.32% वनपंचायताधीन व शेष अन्य संस्थाधीन हैं।
राज्य स्तर पर सर्वाधिक व सबसे कम वन क्षेत्रफल वाले जिले हैं - उत्तरकाशी व हरिद्वार
राज्य स्तर पर सर्वाधिक वन क्षेत्रफल वाले 4 जिले घटते क्रम में क्रमशः - उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, चमोली व पौढ़ी हैं।
राज्य स्तर पर सबसे कम वन क्षेत्रफल वाले 4 जिले बढ़ते क्रम में क्रमशः– हरिद्वार, ऊ.सि.न., बागेश्वर व चम्पातव हैं।
जिले के कुल क्षेत्रफल में वन क्षेत्र के प्रतिशत की दृष्टि से राज्य में सर्वाधिक और सबसे कम प्रतिशत वाले जिले क्रमशः है रुद्रप्रयाग व हरिद्वार।
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वन सांख्यिकी 2016-17 के अनुसार राज्य के जिलों में स्थिति
सर्वाधिक वन प्रतिशत वाले 4 जिले घटते क्रम में क्रमशः रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी व पिथौरागढ़ हैं।
सबसे कम वन प्रतिशत वाले 4 जिले बढ़ते क्रम में क्रमशः हरिद्वार, ऊ.सि.न., बागेश्वर व चमोली हैं।
राज्य के कुल वन क्षेत्रफल का लगभग 63% भाग गढ़वाल मण्डल में और शेष कुमाऊँ मण्डल में है।
राज्य के नदी बेसिनों के कुल क्षे. में वनों के प्रतिशत की दृष्टि से देखें तो सर्वाधिक प्रतिशत वन टौंस बेसिन (76.6%) में, फिर क्रमशः कोसी (69.0%), यमुना (56.7%), काली गंगा (शारदा) (45.4%) व रामगंगा (41.5%) में हैं। भागीरथी बेसिन में 34.9% व अलकनन्दा बेसिन में 32.1% है।
ऊँचाई के क्रम में वन प्रतिशत
राज्य में ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वनों का कुल क्षेत्र तथा उनका प्रतिशत पहले बढ़ता है फिर एक निश्चित ऊंचाई के बाद पुनः घटने लगता है।
300 मीटर से नीचे ऊंचाई वाले भागों में वनों का प्रतिशत 12.8 है।
300-600 मीटर के मध्य 12.3% है।
600-1200 मीटर वाले क्षेत्रों में 16.3% है।
1200-1800 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में 22.3% है।
1800-3000 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में सर्वाधिक वन (28.8%) है।
3000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर केवल 7.5% है।
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उत्तराखंड में हुई प्राकृतिक आपदाएं
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वनों के प्रकार
1. उपोष्ण कटिबन्धीय वन
2. उष्ण कटिबन्धीय शुष्क वन
3. उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र पतझड़ वन
4. कोणधारी वन
5. पर्वतीय शीतोष्ण वन
6. उप-एल्पाइन तथा एल्पाइन वन
7. एल्पाइन झाड़ियाँ तथा घास के मैदान
8. टुण्ड्रा तुल्य वनस्पतियां
वनों का प्रशासनिक विभाजन
राज्य में वनों का प्रबन्ध/नियंत्रण कुल चार तरीके से होता है, जो अधोलिखति हैं -
1. वन विभागाधीन - राज्य के कुल वन क्षेत्र के 70.46 प्रतिशत वन इस श्रेणी में आते हैं। पर्यावरणीय और आपदाओं की दृष्टि इन वनों पर पूर्णतः सरकारी नियंत्रण रहता है।
2. राजस्व विभागाधीन - राज्य के कुल वन क्षेत्र का 13.76 प्रतिशत वन इस श्रेणी में आते हैं। इन वनों में पशु चराने तथा लकड़ी काटने की छूट होती है।
3. वन पंचायताधीन - राज्य के कुल वन क्षेत्र के 15.32 प्रतिशत वन इस श्रेणी में आते हैं। इन वनों पर स्थानीय वन पंचायतों का नियंत्रण होता है।
4. निजी व अन्य संस्थाधीन - राज्य के कुल वन क्षेत्र के 46 प्रतिशत वन इस श्रेणी में आते हैं। इन वनों पर निजी व्यक्तियों, नगर पालिकाओं या नगर परिषदों आदि का अधिकार है।
वनों से लाभ
वन एक नवीकरण संसाधन है, जिनका मानव सभ्यता के विकास एवं संवर्धन में विशेष महत्व है। इनसे मिलने वाले अप्रत्यक्ष लाभ प्रत्यक्ष लाभ से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
अप्रत्यक्ष लाभ - वनों के कारण वायु और जल मृदा अपरदन तथा बाढ़ से हमारे भूमि की रक्षा होती है। वनों की पत्तियों । के गिरने और सड़ने-गलने ने भूमि की उर्वरकता में वृद्धि होती है। वायुमण्डल में CO2 और O2 संतुलन तथा जलवायु को सम बनाये 2 रखने में वनों की अहम भूमिका है। इनसे प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि होती है। अधिक वर्षा में भी वनों का विशेष महत्व है। जिन क्षेत्रों में वनाच्छादन अधिक पाया जाता है वहाँ वर्षा अधिक होती है। वनों में अनेक जीव-जन्तुओं को संरक्षण मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैव और पर्यावरणीय दोनों प्रकार के संतुलन में वनों की अहम भूमिका है।
प्रत्यक्ष लाभ - वन राज्य के आय का एक प्रमुख स्रोत है। इससे अनेक प्रकार की लकड़ियों, औषधियों तथा कई अन्य उपयोगी पदार्थों की प्राप्ति होती हैं।
राज्य में वनों से सतावरी, अश्वगंधा, कचरी, चिरयता, हरय-बहेड़ा आदि औषधियों; तेजपात, इलाइची, हींग आदि मसालों; अखरोट, चिरोंजी, बादाम आदि सूखे फलों तथा गुग्गुल, लाख, रुद्राक्ष, रीठा, भांग आदि अनेक उपयोगी पदार्थों की प्राप्ति होती है।
चीड़वृक्ष के लीसा से राल (रेजिन), बिरोजा ( टर्पेन्टाइन ) और तारपीन बनाया जाता है, जो कि वार्निश, रंग-रोगन, पॉलिश, काँच आदि बनाने में प्रयुक्त होता है।
बबूल आदि लकड़ियों की छाल से रंग, पालिश आदि बनाये जाते हैं। बुरांश, ढाक आदि के फूल से रंग बनाये जाते हैं। बेंत, बांस, रिंगाल आदि घासों से गृह उपयोगी अनेक सामग्रियां तथा फर्नीचर बनाये जाते हैं। खैर के वृक्ष के छाल से कत्था बनाया जाता है। भोजपत्र के तने से कागज बनाया जाता है। सेमल, गुरेल और चीड़ से माचिस तीली, डिब्बी आदि बनाये जाते हैं। कपूर के पौधे से कपूर प्राप्त किया जाता है। देवदार से सुगन्धित तेल व फर्नीचर बनाये जाते हैं। विलों की लकड़ी से क्रिकेट के बल्ले बनाये जाते हैं। बालनट व साल की लकड़ी से वाद्ययंत्र बनाये जाते हैं। स्प्रूस से पैकिंग डिब्बे व फर्नीचर बनाये जाते हैं।