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[PDF] उत्तराखंड का समग्र राजनीतिक इतिहास | Political administrative structure of Uttarakhand

 उत्तराखंड का राजनितिक प्रशासनिक ढाँचा 

देश के अन्य राज्यों की तरह उत्तराखंड का समग्र राजनीतिक इतिहास शासन-प्रशासन संविधान के अध्याय 6 ( अनुच्छेद 152 से 237 तक) के अनुरूप संचालित होता है। संविधान के अनुरूप राज्य में शासन-प्रशासन की संसदात्मक प्रणाली लागू है जिसके तीन प्रमुख अंग इस प्रकार हैं .

  1. कार्यपालिका (राज्यपाल, मंत्रीपरिषद, सचिवालय, विभाग तथा महाधिवक्ता)
  2. विधान मण्डल (राज्यपाल एवं विधानसभा) 
  3. उच्च तथा अधीनस्थ न्यायालय

कार्यपालिका-

राज्यपाल संविधान के अनु. 153 के अनुसार राज्यों के लिए एक राज्याध्यक्ष की व्यवस्था है जिसे राज्यपाल (गवर्नर) के नाम से जाना जाता है। राज्यपाल शब्द राज्य सरकार का बोध कराता है। राज्य की कार्यपालिका शक्ति इसीमे निहित होती है। लेकिन वह इसका प्रयोग अपने अधीनस्थों के माध्यम से करता है। वह राज्य का संवैधानिक प्रमुख और विवेकाधीन शक्तियों प्रयोग करते समय वास्तविक प्रमुख होता है। राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति और राज्य का प्रथम नागरिक राज्यपाल ही होता है। राज्यपाल की नियुक्ति पांच वर्ष के लिए राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह उसी के इच्छापर्यन्त पदधारण करता है। राष्ट्रपति जब चाहे उसे पद से हटा सकता है।

मंत्री परिषद -

संविधान के अनु. 164 के अनुसार राज्यपाल सर्वप्रथम मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। नियुक्ति के बाद अनुसूची तीन के अनुसार पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है। मंत्रीगण राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त अपना पद धारण करते हैं।

राज्य मंत्रीपरिषद अनेक प्रशासनिक, विधायनी तथा वित्तीय कार्य करती है। यही मंत्रीपरिषद ही राज्य में वास्तविक कार्यपालिका का कार्य करती है। मंत्रीपरिषद ही विधानमण्डल की पथ-प्रदर्शक तथा शासन की धूरी है। यह एक विचारशील और नीति निर्णायक निकायहै। यह वह कड़ी है जो शासन के कार्यपालिका अंग को व्यवस्थापिका जोड़ती है।

मुख्यमंत्री राज्य कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान मुख्यमंत्री से होता है। वह राज्य शासन का कप्तान है और मंत्रीमण्डल में उसकी विशिष्ट स्थिति होती है। उसके कार्यों एवं दायित्वों की दृष्टि से उसे प्रधानमंत्री का लघु रूप कहा जा सकता है।

सचिवालय राज्य के वास्तविक कार्यपालिका (मंत्रीपरिषद) के सदस्य जनप्रतिनिधि होते हैं। अतः वे प्रशासन के गुढ़ताओं से अवगत हों, यह आवश्यक नहीं होता। इसलिए आवश्यक प्रशासनिक सहायता एवं परामर्श के लिए मुख्य सचिव के नेतृत्व में एक विशुद्ध प्रशासनिक निकाय का गठन किया गया है जिसे राज्य सचिवालय कहते हैं। सचिवालय के प्रशासनिक अध्यक्ष को मुख्य सचिव और प्रत्येक विभागों के सचिव को 'शासन सचिव' कहा जाता है। वह प्रायः IAS का वरिष्ठ एवं अनुभवी सदस्य होता है।

  •  1814 में गढ़वाल और 1815 में कुमाऊँ पर अंग्रेजों के कब्जे के बाद कुमाऊँ जनपद का गठन किया गया और गढ़वाल नरेश से लिये गये क्षेत्र को कुमाऊँ का एक परगना बनाया गया और देहरादून को (1817 में) एक जिला बनाकर सहारनपुर में सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार अंग्रेजी शासन के आरम्भ में उत्तराखण्ड केवल दो राजनीतिक प्रशासनिक इकाइयों(कुमाऊँ जनपद और टिहरी रियासत) में गठित था।

इन्हें भी जानिये

  • 1840 में ब्रिटिश गढ़वाल का मुख्यालय श्रीनगर से हटाकर पौढ़ी लाया गया और पौढ़ी गढ़वाल नामक नये जनपद का गठन किया गया।
  • 1854 में नैनीताल को कुमाऊँ मण्डल का मुख्यालय बनाया गया और 1890 तक कुमाऊं कमिश्नरी में केवल (कुमाऊं और पौढ़ी गढ़वाल) दो जिले ही रहे।
  • 1891 में कुमाऊं को अल्मोड़ा और नैनीताल नामक दो जिलों में बाँटा गया। यह स्थिति स्वतंत्रता तक बनी रही। अर्थात स्वतंत्रता तक कुमाऊं मण्डल में केवल तीन जिले (पौढ़ी, अल्मोड़ा और नैनीताल) तथा एक रियासत (टिहरी) थी।
  • स्वतंत्रता के बाद 1 अगस्त 1949 को टिहरी रियासत को के चौथे जिले के रूप में सम्मिलित किया गया। 
  • 1960 तक मसूरी, चकराता व देहरादून को छोड़ पूरा पर्वतीय क्षेत्र कुमाऊं मण्डल में था।
  • सन 1960 में टिहरी जनपद से उत्तरकाशी, पौढ़ी जनपद से चमोली व अल्मोड़ा जनपद से पिथौरागढ़ पृथक करके जनपद बनाये गये।
  • 1969 तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के तत्कालीन 7 जिले कुमाऊं मण्डल में थे।
  • सन 1969 में गढ़वाल मण्डल गठित कर पौढ़ी में मण्डल मुख्यालय बनाया गया और टिहरी, पौढ़ी, चमोली व उत्तरकाशी को इसके अधीन रखा। गया जबकि नैनीताल, अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ा को कुमाऊं मण्डल के अधीन रखा गया।
  • सन 1975 में देहरादून को मेरठ मण्डल से हटाकर गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर दिया गया।
  • 28 दिसम्बर 1988 को हरिद्वार का सृजन हुआ। राज्य गठन के बाद इसे सहारनपुर मण्डल से हटाकर गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया।
  • 26 दिसम्बर 1995 को ऊधमसिंह नगर, 15 सितम्बर 1997 को चम्पावत, 18 सितम्बर 1997 को रुद्रप्रयाग और बागेश्वर जनपद बनाये गये।

 

सचिवालय राज्य प्रशासन के पर्यवेक्षण निर्देशन और नियंत्रण का कार्य करता है। सरकारी नीति रचना हेतु आवश्यक सामग्री एकत्रित करना और उसका विश्लेषण कर मंत्री परिषद के सम्मुख प्रस्तुत करना सचिवालय का कर्तव्य है।

राज्य प्रशासन में मुख्य सचिव का पद प्रशासनिक पद सोपान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। राज्य में जो स्थान और कार्य मुख्य सचिव का है, केन्द्र में वही स्थान और कार्य कैबिनेट सचिव का है। मुख्य 'सचिव राज्य प्रशासन का धुरी है।

कार्यकारी विभाग ( निदेशालय)- राज्य प्रशासन में मंत्रीपरिषद (राजनीतिक प्रमुख), सचिवालय (प्रशासनिक प्रमुख) के बाद तीसरा अवयव कार्यकारी विभाग (निदेशालय) होता है। ऊपर के दोनों अवयवों का सम्बन्ध नीति निर्माण से है। जबकि कार्यकारी विभाग(निदेशालय) क्रियान्वयन के लिए प्राथमिक रूप से जिम्मेदार संस्था है।

राजस्व (रेवेन्यू) पुलिस

  •  1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज उत्तराखण्ड के सभी क्षेत्रों में सिविल पुलिसव्यवस्था लागू करना चाहते थे, लेकिन कुमाऊँ के तत्कालिन कमीश्नर रैम्जे (1856-84) ने राज्य की जनता को सीधा-साधा बताते हुए राजस्व पुलिसव्यवस्था को बनाए रखने की सिफारिश की थी।
  • राज्य में राजस्व पुलिस व्यवस्था 1874 से लागू है। वर्तमान में राज्य केलगभग 61% भाग पर यह व्यवस्था लागू है
  • इस व्यवस्था में पटवारी, कानूनगो, नायब तहसीलदार, तहसीलदार,परगनाधिकारी, जिलाधिकारीकमीश्नर आदि को राजस्व के साथ ही पुलिस का भी काम करना पड़ता है।
  • यहाँ अपराधों की जांच करना, मुकदमा दर्ज करना और अपराधियों को पकड़ना राजस्व पुलिस की ही जिम्मेदारी है।
  • पिछले कुछ समय से राजस्व क्षेत्रों को सिविल पुलिस के हवाले करने की मांग जोरों से उठी है। इस मांग के पीछे राजस्व पुलिस के पास अपराध रोकने की पुख्ता व्यवस्था न होने और तकनीकी जानकारी के अभाव में अपराधों की जांचप्रभावी ढंग से न कर सकने का तर्क दिया जाता रहा है
  • अंग्रेजी शासनकाल में कुमाऊं में 19 परगनें तथा 125 पट्टियां (पटवारी क्षेत्र) थे जबकि गढ़वाल में 11 परगनें तथा 86 पट्टियाँ (पटवारी क्षेत्र) थें।


• एक शासन सचिव के अंदर कई विभाग होते हैं। जैसे - गृहसचिव के अन्तर्गत पुलिस, जेल, आन्तरिक सुरक्षा आदि विभाग ।

• विभिन्न विभागों की कार्यात्मक इकाइयां नीचे तक फैली होती है और सबके अपने विभाजन स्तर होते हैं।

• सामान्य एवं राजस्व प्रशासन में विभागाध्यक्ष के बादमण्डलायुक्त होता है, जो अपने मण्डल के शान्ति व्यवस्था, राजस्व वसूली तथा अन्य कार्यों को देखता है। वर्तमान में राज्य में 2 मण्डल (गढ़वाल और कुमाऊं) है। गढ़वाल मण्डल में सर्वाधिक 7 जिले हैं।

• मण्डल के नीचे जिलाधिकारी के नेतृत्व में जिले होते हैं।राज्य में कुल 13 जिले हैं।

जिले से नीचे उप जिलाधिकारी के नेतृत्व में तहसीलें होती हैं।  वर्तमान में राज्य में कुल 100 तहसीलें हैं, जबकि राज्य गठन से पूर्व केवल 49 तहसीलें ही थी। एक ही साथ 29 नई तहसीलों का गठन मई 2004 में लोकसभा के चुनाव से पूर्व किया गया था।

• सामान्य व राजस्व प्रशासन की तरह विकास प्रशासन के भीअपने स्तर हैं। इसमें सबसे ऊपर राज्य स्तर, फिर जिला स्तर और सबसे नीचे ब्लाक होता है। राज्य में कुल 95 ब्लाक हैं। 

महाधिवक्ता- संविधान के अनु. 165 के अनुसार राज्य में महाधिवक्ता की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा (अवधि नियत नहीं) की जाती है और उसी के प्रसादपर्यन्त पद धारण करता है।

  • इस पद पर नियुक्त होने के लिए आवश्यक है कि वह भारत का नागरिक हो, 10 वर्ष से अधिक समय से न्यायिक कार्य से जुड़ा हो या कम से कम 10 वर्ष से उच्च न्यायालय में अधिवक्ता का कार्य किया हो।
  • वह विधि विषयों पर राज्यपाल को सलाह देता है एवं राज्यपाल द्वारा सौंपे गये विधि सम्बंधी कार्यों का सम्पादन करता है। वह सदनों की बैठकों में भाग ले सकता है, बोल सकता, लेकिन मतदान नहीं कर सकता है।
  • राज्य के प्रथम महाधिवक्ता मेहरबान सिंह नेगी थे।

विधानमण्डल 

राज्य में विधि निर्माण के लिए विधानमण्डल की व्यवस्था की गई है। विधानमण्डल के दो अंग हैं राज्यपाल और विधानसभा।

राज्यपाल- विधानमण्डल में सबसे ऊपर राज्यपाल का स्थान है। उसके हस्ताक्षर के बिना कोई कानून प्रवर्तन में नहीं आ सकता। राज्यपाल विधानसभा के अधिवेशन को आहूत करता, सत्रावसान करता तथा विघटन करता है। वह सदन का सत्र शुरू होने पर सदन में अभिभाषण करता, बजट रखवाता, साक्ष्यों की निरहर्ताओं का विनिश्चय करता, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए आरक्षित रखता तथा विशेष परिस्थितियों में जब सदन सत्र में न हो अध्यादेश जारी करता है। ये सभी राज्यपाल के विधायी कार्य हैं।

विधानसभा- विधानसभा का गठन संविधान के अनु. 170के तहत राज्य के वयस्क मतदाताओं द्वारा चुने गये सदस्यों द्वारा होता है। इसी अनुच्छेद के तहत यह भी व्यवस्था है कि किसी राज्य की विधानसभा में अधिक से अधिक 500 और कम से कम 60 सदस्य हो सकते हैं।



  • विधानसभा सदस्यों का चुनाव विधानसभा क्षेत्रों के वयस्क (18 वर्ष या ऊपर) मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रीति से किया जाता है।
  • अनु. 173 में विधानसभा की सदस्यता के लिए निर्धारित योग्यताएं वही हैं जो लोकसभा के लिए निर्धारित हैं - वह भारत का नागरिक हो, वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो, वह भारतीय सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर कार्यरत न हो तथा संसद द्वारा बनायी गयी किसी विधि के अधीन राज्य विधानसभा का सदस्य चुने जाने के अयोग्य न हो।
  • विधान सभा का सदस्य चुने जाने के बाद और पद ग्रहण करने से पूर्व राज्यपाल या उसका प्रतिनिधि तीसरी अनुसूची के अनुसार शपथ दिलाता है।
  • सामान्यतया विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है। म किंतु राष्ट्रीय आपातकाल की उदघोषणा के प्रर्वतन की स्थिति में विधानसभा की अवधि केा एक वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है। लेकिन इस प्रकार बढ़ायी गयी अवधि आपातकाल के समाप्त होने के 6 महीने से अधिक समय के बाद जारी नहीं रह सकती।
  • विधानसभा का विघटन उसके 5 वर्ष पूरा होने के पूर्व भी किया जा सकता है, इसका विघटन मंत्रिपरिषद की सलाह पर राज्यपाल द्वारा किया जाता है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में भी विधानसभा को विघटित किया जा सकता है।
  • विधानसभा के बैठक में गणपूर्ति के लिए कम से कम 1/ 10 सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है तथा यह संख्या किसी भी हालत में 10 से कम नहीं होनी चाहिए। 
  • विधानसभा का सत्र वर्ष में कम से कम दो बार आहूत किया जाना आवश्यक है तथा किन्हीं दो सत्रों के बीच 6 माह से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए। विशेष परिस्थितियों में विधानसभा का विशेष सत्र भी राज्यपाल द्वारा बुलाया जा सकता है।
  • संविधान के अनु. 178 के अनुसार, विधानसभा के सदस्य अपने में से किसी एक सदस्य को अध्यक्ष तथा एक अन्य कोउपाध्यक्ष चुनते हैं।
  • विधानसभा भंग होने पर अध्यक्ष अगली नव निर्वाचित विधानसभा के प्रथम अधिवेशन होने तक अपने पद पर बना रहता है।
  • विधानसभा अध्यक्ष सामान्यतया 5 वर्षों के लिए निर्वाच किया जाता है, किंतु वह इसके पहले उपाध्यक्ष को अपना इस्तीफा देकर पद छोड़ सकता है।
  • यदि अध्यक्ष विधानसभा का सदस्य नहीं रहे तो भी उसे अध्यक्ष पद त्यागना पड़ता है। इसके अलावा विधानसभा के तत्कालीन सदस्यों के बहुमत के प्रस्ताव के द्वारा भी अध्यक्ष को अपदस्थ किया जा सकता है। परंतु ऐसा प्रस्ताव पेश करने से पूर्व अध्यक्ष को 14 दिन पूर्व सूचना देना अनिवार्य है जब अध्यक्ष के विरुद्ध प्रस्ताव प्रस्तुत हो तो अध्यक्ष उस बैठक की अध्यक्षता नहीं करता, परंतु उसमें भाग लेने और मत देने का पूर्ण अधिकारी होता है।
  • विधानसभा का अध्यक्ष वही कार्य करता है, जो लोकसभाध्यक्ष करता है।
  • विधानसभा सदस्यों की संख्या - गठन से पूर्व राज्य में विधानसभा की कुल 22 तथा विधान परिषद की 9 सीटें थी। गठनोपरान्त 5 नवम्बर 2001 को सम्पन्न परिसीमन के बाद विधान सभा सीटों की संख्या बढ़कर 70 हो गई। फरवरी 2008 में क्षेत्र परिसीमन किया गया।
  • राज्य के विधानसभा के कुल 70 सीटों में से आरक्षित सीटों की संख्या 15 (13sc + 2st ) हैं।
  • अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें हैं (देहरादून), एवं नानकमत्ता (.सि.नगर) चकराता

अंतरिम विधानसभा - .प्र. पुनर्गठन विधेयक 2000 में उत्तराखण्ड के अंतरिम विधानसभा हेतु 31 विधायकों की व्यवस्था की गयी थी। इन 31 विधायकों में से 22 सदस्य 1996 में .प्र. विधानसभा के लिये चुने गये थे, जबकि 9 .प्र. विधानपरिषद के सदस्य थे। अंतरिम विधानसभा के गठन से ठीक पहले विधान परिषद के 9 सदस्यों में से एक सदस्य का कार्यकाल समाप्त हो जाने के कारण गठन के समय विधानपरिषद के सदस्यों की संख्या 8 रह गयी थी। अतः अंतरिम विधानसभा का गठन 30 विधायकों से किया गया।

  • भाजपा का बहुमत होने के कारण 9 नवम्बर 2000 को उसी के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और राज्यपाल सुरजीतसिंह बरनाला ने नित्यानन्द स्वामी को राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाया। अंतरिम मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित १ कैबिनेट मंत्री तथा 4 राज्यमंत्री थे।
  • अंतरिम विधानसभा के कुल 30 विधायकों में से 23 भाजपा के, 3 सपा के तथा 2-2 बसपा व कांग्रेस के थे। गठन के ठीक बाद सपा के एक विधायक (मुन्ना सिंह चौ.) के पार्टी छोड़कर उत्तराखण्ड जनवादी पार्टी का गठन कर लेने के कारण सपा विधायकों की संख्या 2 रह गयी थी। विपक्ष के तीनों दलों के बराबर होने के कारण अंतरिम विधानसभा में कोई प्रतिपक्ष का नेता नहीं बन सका था।
  • नित्यानंद स्वामी के त्यागपत्र दे देने के बाद 29 अक्टूबर 2001 को भगत सिंह कोश्यारी अंतरिम सरकार के दूसरे मुख्यमंत्री बने और 2 मार्च 2002 तक मुख्यमंत्री रहे।
  • कोश्यारी के अंतरिम मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित 9 कैबिनेट मंत्री तथा 3 राज्यमंत्री थे।
  • अंतरिम विधानसभा के अध्यक्ष प्रकाश पन्त बनाये गये थे और प्रथम सत्र 9 जनवरी 2001 से शुरु हुआ था। 

प्रथम निर्वाचित विधानसभा - राज्य में प्रथम विधानसभा चुनाव 14 फरवरी 2002 को हुआ था, जिसमें कुल 54.34% मतदान हुआ था। इस चुनाव में कांग्रेस को 36, भाजपा को 19, बसपा को 7, उक्रांद को 4, राकांपा को 1 तथा 3 सीटें निर्दलीय विधायकों को मिली थी। बाद में 1 राकांपा और 3 निर्दलीय विधायकों के कांग्रेस में शामिल हो जाने के बाद कांग्रेस के विधायकों की संख्या 40 हो गयी थी। 2 मार्च 2002 को कांग्रेस के सांसद नारायण दत्त तिवारी ने राज्य के प्रथम निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। बाद में वे रामनगर विधानसभा सीट से विधायक चुने गये थे। इस विधानसभा में केवल 4 महिलाओं ने (2-2 कांग्रेस व भाजपा से) प्रतिनिधित्व किया था। यशपाल आर्य को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया था।

दूसरी निर्वाचित विधानसभा-राज्य में दूसरी विधानसभा के लिए आम चुनाव 21 फरवरी 2007 को सम्पन्न हुआ था। इसमें कुल 63.6% मतदान हुआ था। इस चुनाव में भाजपा को 36, कांग्रेस को 20, बसपा को 8, उक्रांद को 3 व निर्दलीय प्रत्याशियों को 3 सीटें मिली थीं। इसमें भी केवल 4 महिलाएं निर्वाचित हुई थीं। 8 मार्च, 2007 को भाजपा के मे. भुवन चन्द्र खण्डूरी राज्य के दूसरे निर्वाचित मुख्यमंत्री बने थे। विधान सभा अध्यक्ष हरबंश कपूर थे। खण्डूरी के इस्तीफा देने के बाद 25 जून, 2009 को खण्डूरी सरकार में स्वास्थ मंत्री रहे रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और इस पद पर केवल 2 वर्ष 2 माह 18 दिन - रहे। 11 सितम्बर, 2011 को खण्डूरी पुनः मुख्यमंत्री बने और 13 मार्च, 2012 तक इस पद पर रहे। 

तृतीय निर्वाचित विधान सभा- तृतीय विधानसभा के लिए मतदान 30 जनवरी, 2012 को हुए थे, जिसमें कुल 67.70% मतदान हुआ था। इस चुनाव में भाजपा को 31, कांग्रेस को 32, - बसपा को 3, उक्रांद को 1 व निर्दलियों को 3 सीटें मिली थीं। इस बार 5 महिलाएं चुनाव जीतीं थी। कांग्रेस के गोविन्द सिंह  कुंजवाल को विधानसभा अध्यक्ष चुना गया था। 13 मार्च, 2012  को कांग्रेस सांसद विजय बहुगुणा राज्य के सांतवें मुख्यमंत्री बनें थे, लेकिन आंतरिक कलह के कारण 31 जनवरी, 2014 को श्री  बहुगुणा के इस्तीफा देने के बाद 1 फरवरी, 2014 से श्री हरीश रावत राज्य के आठवें मुख्यमंत्री बने थे। 3 उपचुनावों के बाद मार्च, 2015 तक कांग्रेस 36 विधायकों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त कर चुकी थीं। 27 मार्च से 11 मई, 2016 तक राज्य में 46 दिन का राष्ट्रपति शासन रहा। 12 मई, 2016 को रावत फिर मुख्यमंत्री बने थे। 

समितियाँ - विधानसभा के पास इतना समय और सुविधाएं नहीं होती कि वह प्रत्येक मामले पर गहनता से विचार कर सकें। अतः इसमें विभिन्न प्रयोजनों के लिए समितियाँ बनाने की व्यवस्था है। ये समितियाँ अपने विषयों पर गहनता से विचार करती हैं। प्रमुख समितियाँ इस प्रकार हैं प्रत्यायोजित विधि निर्माण समिति, आश्वासन समिति, लोक लेखा समिति, निगम समिति, विशेषाधिकार समिति, याचिका समिति, आवास समिति आदि।

नेता विरोधी दल- राज्य विधान सभा में द्वितीय सबसे बड़ी पार्टी, जो कि सरकार में सम्मिलित न हो, नेता को विरोधी दल नेता के रूप में मान्यता देते हुए राज्य के कैबिनेट स्तर के मंत्री के समान सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। उन्हें एक पृथक कार्यालय, वेतन एवं भत्ता सुसज्जित आवास आदि की निःशुल्क सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता तथा कार्यालय हेतु अपेक्षित कर्मचारियों की सुविधाएं भी प्रदान की जाती हैं।

सचिवालय - राज्य विधानसभा का अपना सचिवालय है। इसकी कार्यप्रणाली राज्य सरकार के अन्य सचिवालयों और सचिवों से पूर्णतः स्वतन्त्र है। सचिवालय को विभिन्न अनुभागों में विभक्त किया गया है, जो कि सदनीय लेखा कार्यवाही तथा अन्य गठित समितियों का कामकाज देखते हैं।

संसद में प्रतिनिधित्व-राज्य में लोकसभा की 5 तथा राज्यसभा की 3 सीटें हैं। लोकसभा क्षेत्र इस प्रकार हैं। अल्मोड़ा, पौढ़ी, टिहरी, नैनीताल और हरिद्वार। 2008 के परिसीमन के अनुसार प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र के अन्तर्गत विधानसभा की 14-14 सीटें हैं। अल्मोड़ा की सीट अ.जा. के लिए सुरक्षित है।

न्यायपालिका-न्यायपालिका शासन का तीसरा महत्वपूर्ण अंग है। इसका मुख्य कार्य विधि की व्याख्या करना है। यह विधायिका एवं कार्यपालिका पर वहाँ तक नियन्त्रण स्थापित करती है, जहाँ तक ये निकाय विधान और संविधान से परे जाकर कार्य करने लगते हैं। न्यायपालिका को नागरिकों के अधिकारों का रक्षक एवं संविधान का सजग प्रहरी कहा जाता है। प्रदेश में न्याय प्रशासन के शीर्ष पर एक उच्च न्यायालय है। उच्च न्यायालय के नियंत्रण में अनेक अधीनस्थ न्यायालय हैं। यथा - जिला न्यायालय, पारिवारिक न्यायालय, राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण एवं विधिक सेवा समितियां आदि।

उच्च न्यायालय- संविधान के अनुछेद 214 के तहत प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक उच्च न्यायालय का प्रावधान किया 

उच्च न्यायालय भवन

  • नैनीताल के जिस भवन में उच्च न्यायालय स्थित है वह भवन 100 वर्ष से अधिक पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल में लेफ्टिनेन्ट गवर्नर सर सन्टोनी मैक्डोनल्ड ने इसका निर्माण कराया था। बीच में कुछ समय के लिए इसमें ब्रान्सडेल स्कूल था। 
  • आगे चलकर उ.प्र. सरकार ने नैनीताल को जब ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया तो इसका उपयोग सचिवालय भवन के रूप में किया गया।
  • इस भवन का आर. ए. एफ. के अवकाश शिविर मुख्यालय के रूप में भी उपयोग हुआ था। 
  • नैनीताल से ग्रीष्मकालीन राजधानी हटने के बाद इसमें कई सरकारीकार्यालय थे।

 

  • इस अनु. के अनुरूप 9 नवम्बर 2000 को देश के 20वें उच्च न्यायालय के रूप में नैनीताल में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की स्थापना की गई।
  • अनुच्छेद 127 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को राज्य के अन्य न्यायालयों और न्यायाधिकारियों के अधीक्षण का पूरा अधिकार है।
  • वर्तमान में राज्य उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की कुल संख्या 8 है।
  • राज्य उच्च न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अशोक अभयंकर देसाई तथा प्रथम रजिस्ट्रार जी.सी.एम. रावत थे।
  •  मुकदमों के शीघ्र निबटारे हेतु अप्रैल, 2001 में 45 'फास्ट ट्रेक कोर्ट' (त्वरित न्यायालयों) का गठन किया गया।
  • राज्य में लोक अदालतों की व्यवस्था भी की गई है, जो लोगों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करती है। लोक अदालतों की व्यवस्था व संचालन के लिए सरकार ने 'उत्तराखण्ड कानूनी सहायता एवं परामर्श बोर्ड' की स्थापना की है।
  • राज्य के विभिन्न जिलों में बोर्ड की इकाईयों का भी गठन किया गया है, जिन्हें 'जिला कानूनी सहायता व परामर्श समिति कहा जाता है।
  • प्रदेश के पंचायतीराज कानून के अंतर्गत न्याय पंचायतों का भी गठन किया गया है, जो कुछ मामलों में 500 रुपयों तक के मामलों की सुनवाई कर सकती है।

लोकायुक्त-राज्य शासन-प्रशासन में अधिकारों के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार एवं कदाचार सम्बंधी शिकायतों एवं अभिकथनों का अन्वेषण करने व राज्य सरकार को इस संबंध में संस्तुति भेजने हेतु लोकायुक्त संगठन स्थापित करने सम्बंधी एक नया विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा 1 नवम्बर, 2011 को पारित किया गया। इसमें मुख्यमंत्री सहित सभी मंत्रीगण, विधायक व आईएएस सहित सभी लोक सेवक को जांच दायरे में लाया गया है।

नये कानून के अनुसार लोकायुक्त संगठन में एक अध्यक्ष और पांच सदस्य (जरूरत के मुताबिक सात सदस्य तक) होंगे। आधे सदस्य 20 साल के अनुभव वाले विधिक पृष्ठभूमि के होंगे। बाकी आधे सदस्य लोक सेवा, अन्वेषण, सतर्कता, भ्रष्टाचार के विरूद्ध कार्य करने, शासन, वित्त प्रबंधन, पत्रकारिता अथवा सूचना अभियांत्रिकीमें न्यूनतम 20 वर्ष का अनुभव रखने वाले होंगे। 

नये विधेयक के अनुसार किसी भी शिकायत की सुनवाई के लिए लोकायुकत के तीन विंग हैं। अन्वेषण शाखा, अभियोजन शाखा और न्यायिक शाखा। किसी शिकायती आवेदन पर अथवा स्वतः किसी मामले का संज्ञान लेकर लोकायुक्त नोटिक भेज सकता है। राज्य की विजिलेंस (सतर्कता) इकाई लोकायुक्त के अधीन रखी गई है।



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