उत्तराखण्ड में वन सम्बन्धी आन्दोलन
जंगल उत्तराखण्ड की प्रमुख संपदा है अतः हमारे जंगलो को बचाने के लिए उत्तराखण्ड में कई वन सम्बन्धी आंदोलन हुए है जो इस प्रकार हैं।
- रंवाई आन्दोलन
- चिपको आन्दोलन
- डूंगी-पैंतोली आंदोलन
- पाणी राखो आन्दोलन
- रक्षासूत्र आन्दोलन
- झपटो छीनो आंदोलन
- मैती आन्दोलन
रंवाई आन्दोलन:-स्वतंत्रता से पूर्व टिहरी रियासत में, राजा नरेन्द्रशाह के समय किसानों की भूमि को वन भूमि में सम्मिलित कर उसे राजा के अधीन कर दिया गया। इस व्यवस्था के विरुद्ध रंवाई क्षेत्र की जनता ने 'आज़ाद पंचायत' का गठन कर अपने अधिकारों के लिए विद्रोह प्रारंभ कर दिया। 30 मई 1930 को रंवाई क्षेत्र के तिलाड़ी गाँव में आज़ाद पंचायत की एक बैठक के दौरान रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल ने सैनिकों से गोलियां चलवायीं, जिसमें सैकड़ों किसान शहीद हो गए। इस आन्दोलन को तिलाड़ी काण्ड' भी कहा जाता है। आज भी इस क्षेत्र में 30 मई को 'शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।
चिपको आन्दोलन:- 70 के दशक में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में चले 'चिपको आंदोलन का पर्यावरण संरक्षण में विशेष योगदान' रहा है। इस आन्दोलन ने देश भर में पर्यावरण के प्रति एक नई जागरूकता पैदा की और पूरे विश्व के समक्ष एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया। चिपको का अर्थ है कि वृक्षों को बचाने के लिये उनसे चिपक कर जान दे देना, किन्तु वृक्षों को काटने नहीं देना अर्थात अपने प्राणों की आहुति दे कर भी वृक्षों की रक्षा करना। लेकिन चिपको का मतलब केवल पेड़ों से चिपकना भर नहीं था, व्यापक तौर पर ये आंदोलन प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय अधिकार के लिये था।
वर्ष
1974 में वन विभाग ने
जोशीमठ के रैणी गाँव
के क़रीब 680 हेक्टेयर जंगल ऋषिकेश के
एक ठेकेदार जगमोहन भल्ला को नीलाम कर
दिया। रैणी गाँव की
महिलाओं ने जब कटान
की तैयारी देखी तो वो
सहम गईं। जंगल ही
उनका जीवन था। लेकिन
उस वक्त गाँव में
कोई पुरुष मौजूद नहीं था जो
ठेकदार और मजदूरों को
रोकता। अब उनके सामने
एक ही विकल्प था
अपनी जान देकर जंगल
को बचाना। इसकी पहल गौरा
देवी ने की। उन्होंने
गाँव की महिलाओं को
गोलबंद किया। ठेकेदार के मजदूरों को
इस विरोध का अंदाज़ न
था। सैकड़ों की तादाद में
महिलाओं को पेड़ों से
चिपके देख उनके होश
उड़ गये। उन्हें मजबूरन
खाली हाथ लौटना पड़ा।
उस समय अलकनंदा घाटी
से उभरा चिपको का
यह संदेश जल्दी ही अन्य इलाकों
में भी फैल गया।
नैनीताल और अल्मोड़ा में
स्थानीय लोगों ने जगह-जगह
वनों की नीलामी रुकवाई।
1977 में इस आन्दोलन में
छात्र भी शामिल हो
गए।
चिपको आन्दोलन का नारा था- क्या हैं "इस जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार ।”
चिपको आंदोलन को शिखर तक पहुंचाने में चंडीप्रसाद भट्ट और पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। बहुगुणा जी ने “हिमालय बचाओ देश बचाओ का नारा दिया। इस आंदोलन के लिए चंडीप्रसाद भट्ट को 1982 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार (Ramon Magsaysay Award) से सम्मानित किया गया था।
"वर्ष 1987 में चिपको आन्दोलन को सम्यक जीविका पुरस्कार (The Right Livelihood Award) से सम्मानित किया गया"।
पाणी
राखो आन्दोलन:- यह आन्दोलन 80 के
दशक के मध्य से
पौड़ी के उफरैंखाल गाँव
के युवाओं द्वारा पानी की कमी
को दूर करने हेतु
चलाया गया। इस आन्दोलन
के जनक उफरैंखाल गाँव
के शिक्षक सच्चिदानंद भारती थे। उनके द्वारा
गठित 'दूधातौली लोक विकास संस्थान
ने जनचेतना जाग्रत कर यहाँ वनों
का अन्धाधुंध कटान रुकवाया। इस
आन्दोलन के तहत अब
तक लोगों द्वारा अब तक 15 लाख
से भी अधिक पेड़
लगाये गए हैं एवं
विभिन्न स्थानों पर महिला मंगल
दल' गठित किये गए
हैं जो पर्यावरण जागरूकता
के साथ गांवों में
विकास कार्यों में संलग्न हैं।
- “ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे, नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे, पेड़ कटेंगे पहाड़ टूटेंगे, बिना मौत के लोग मरेंगे, जंगल बचेगा देश बचेगा, गांव-गांव खुशहाल रहेगा।"
झपटो
छीनो आंदोलन:- रैणी, लाता, तोलमा आदि गांव के
निवासियों ने वनों पर
अपने परंपरागत अधिकार (Traditional Right) बहाल करने और
नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क का प्रबंधन स्थानीय
लोगों को सौंपने की
मांग को लेकर 21 जून
1998 को लाता गांव में
धरना प्रारंभ किया और इसी
क्रम में, 15 जुलाई को समीपवर्ती ग्रामीण
अपने मवेशियों के साथ नंदादेवी
राष्ट्रीय पार्क में घुस गए।
इस कारण आन्दोलन को
झपटो छीनो नाम दिया
गया।
मैती
आन्दोलन:- मैती शब्द का
अर्थ मायका (Maternal) होता है। मैती
आन्दोलन के सूत्रधार कल्याण
सिंह रावत थे। इस
अनोखे आन्दोलन का विचार उन्हें
वर्ष 1996 में ग्वालदम इंटर
कॉलेज की छात्राओं के
शैक्षिक भ्रमण के दौरान आया
। वेदनी बुग्याल के दौरे पर
छात्राओं को वनों की
देखभाल करता देख रावत
जी को ये अनुभव
हुआ कि युवतियां पर्यावरण
संरक्षण में अभूतपूर्व योगदान
दे सकती हैं। इसी
विचार के फलस्वरूप उन्होंने
'मैती संगठन' की शुरुआत की।
इस आंदोलन के तहत, क्षेत्र
में विवाह समारोह में वर-वधू
द्वारा पौधारोपण और मायके पक्ष
के लोगों द्वारा उन पौधों की
देखभाल की परंपरा विकसित
हो चुकी है। विवाह
के निमंत्रण पत्र पर बकायदा
मैती कार्यक्रम छपता है और
लोग इसमें पूरी रूचि लेते
हैं।
वन सम्बन्धी योजनाएं/ कार्यक्रम/ संस्थाएं
राज्य में वनों के विकास एवं के लिए कई योजनाएं/कार्यक्रम चलाए जा रहें हैं। यहाँ कुछ प्रमुख कार्यक्रमों, योजनाओं तथा संस्थाओं का उल्लेख किया जा रहा है।
मिश्रित वन खेती मॉडल - कोट मल्ला (रुद्रप्रयाग) निवासी जगत सिंह चौधरी 'जंगली' ने विगत 30 वर्षों की मेनहत से मिश्रित वन खेती का मॉडल तैयार किया है। उनका मानना है कि उत्तराखण्ड हिमालय सहित सम्पूर्ण देश ही नहीं, अपितु विश्व के लिए 'मिश्रित-वन खेती को अपनाया जाना पारिस्थितिकी सन्तुलन, पर्यावरण संरक्षण, जल-संरक्षण के साथ-साथ सतत आर्थिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है। उनके इस सफल प्रयास के लिए आर्यभट्ट सम्मान 2006 दिया गया।
वृक्ष मानव - उत्तराखण्ड में वृक्ष-विहीन पहाड़ों पर वृक्षारोपण करने के कारण विश्वेश्वर दत्त सकलानी वृक्षमानव के नाम से जाने जाते हैं। वे इस कार्य को 1949 से कर रहे हैं।
अपना गांव-अपना वन - यह योजना गांवों को वनों से जोड़ने के लिए चलाई जा रही है। इसके तहत वन भूमियों से अतिक्रमण हटाकर उस पर वृक्षारोपण किया जा रहा है।
नागरिक एवं सोयम वन विकास योजना - इस योजना के अन्तर्गत नागरिक एवं सोयम वनों को वन विभाग को हस्तांतरित करके उसका वैज्ञानिक ढंग से प्रबंध किया जाता है।
वन पंचायत - वनों के विकास और सुरक्षा के लिए राज्य में अब तक लगभग 12168 वन पंचायतों का गठन किया जा चुका जो कि लगभग 5.5 लाख हेक्टेयर वनक्षेत्र का संरक्षण कर रही हैं।
राज्य में वन पंचायत व्यवस्था ब्रिटिश काल (1931 से) से चली आ रही हैं। पंचायतों को वनों का प्रबन्ध और वन उत्पादों के उपयोग का अधिकार है।
ग्राम सभाओं में ग्राम पंचायतों के बाद वन पंचायतें दूसरी ऐसी कानूनी संस्थाएं हैं, जिन्हें गांव के सामूहिक विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार है। यह देश में अपनी तरह की अकेली व्यवस्था है।
नर्सरियां - वृक्षारोपण की तकनीकी को उच्च स्तरीय बनाने के लिए राज्य में कई हाई-टैक वन नर्सरियाँ स्थापित की गयी हैं 6 जनवरी 2006 को राज्य में पौध रोपण नीति लागू किया गया । इस प्रकार पौधारोपण नीति लागू करने वाला यह देश का प्रथम राज्य हो गया ।
दूधातोली लोक विकास संस्थान, उफरैंखाल - आज कई वर्षों से शिक्षक सच्चिदानन्द भारती इस संस्था के माध्यम से उफरैंखाल (पौड़ी) में बरसाती पानी को जल तलैय्याओं में रोककर बेकार चले जाने वाले पानी के अधिकतम सदुपयोग के प्रयास में लगे हैं। उनके इस प्रयास से इस क्षेत्र में हरियाली तो बढ़ी ही है साथ ही जल, जंगल और जमीन को भी पर्याप्त संरक्षण हुआ है और भूमि कटाव, बाढ़ आदि में कमी आई है।
इको टास्क फोर्स - भूतपूर्व सैनिकों को रोजगार देने, वनीकरण में वृद्धि करने व वनों को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से प्रदेश में इस फोर्स का गठन 2008-09 में किया गया।
वन नीतियां
सन् 1865 में वनों से सम्बन्धित भारत का पहला कानून भारतीय वन अधिनियम पास किया गया। इस अधिनियम के बाद वनों की अंधाधुंध कटाई में कमी आई। इसके बाद 1884 में वनों के वैज्ञानिक प्रबन्धन के लिए कार्य योजना वन विभाग लागू किया गया।
• स्वतन्त्रता के बाद 1948 में केन्द्रीय वानिकी परिषद की स्थापना की गई तथा वनों के संरक्षण, विस्तार, रखरखाओं और उसके लाभों के प्रति लोगों में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए 1950 से देश भर में वन महोत्सवों के आयोजन शुरू किये गये।
• वनों के संरक्षण, विकास एवं प्रशासन को नये सिरे से चलाने के लिए 1952 में नई राष्ट्रीय वन नीति बनायी गई और कुछ परिवर्तन के साथ 1998 में संशोधित राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई। इस नीति के आधार पर उ.प्र. सरकार ने जो वन नीति बनाई वही उत्तराखण्ड में भी लागू हैं। इस नीति के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं।
1. प्रदेश में जैव विविधता एवं वन्य जीव-जन्तुओं के संरक्षण की रणनीति एवं कार्ययोजना तैयार कर उसे क्रियान्वित करना।
2. प्रदेश के रिक्त एवं बंजर स्थानों में वन रोपण करके वन क्षेत्र को बढ़ाना। सामाजिक वानिकी एवं कृषि वानिकी को प्रोत्साहित करना।
3. पारिस्थितिकीय पर्यटन को लोकप्रिय बनाने हेतु जैव विविधता वाले क्षेत्रों का व्यापक प्रचार-प्रसार करना।
4. राज्य में वन अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण को विस्तृत करना।
5. वन विभाग में सूचना के आदान-प्रदान के लिए कम्प्यूटर आधारित सूचना तन्त्र विकसित करना।
वन शिक्षा
सन् 1865 में भारत के प्रथम वन महानिरीक्षक डॉ. डिट्रिच बैंडिस की नियुक्ति की गई और उनकी सलाह पर 1878 में देहरादून में देश के प्रथम वन महाविद्यालय (फारेस्ट स्कूल ऑफ देहरादून) की स्थापना की गयी। 1884 में इसका नाम इंपीरियल फारेस्ट स्कूल रखा गया। 1906 में अनुसंधान कार्य के साथ जोड़ते हुए इनका नया नाम 'इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट' रखा गया है। संस्थान के बढ़ते कार्य से स्थानाभाव के कारण 1914 में कार्यालय एवं प्रयोगशाला बनाकर इसे चांद बाग स्थानान्तरित कर दिया गया। स्वतन्त्रता के बाद इसका नाम इंडियन फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफआरआई) हो गया।
• एफआरआई का सभागार पूरे एशिया में लकड़ी से निर्मित एकमात्र हाल है। इसमें 6 संग्रहालय है। भवन में 18,000 काष्ठ नमूनों के साथ एक काष्ठ संग्रहालय भी है।
• एफआरआई का मुख्य कार्य वानिकी संस्थान नीति को सूत्रित करना और इसके संघटक संस्थानों, केन्द्रों और सम्बन्धित संगठनों एवं विश्वविद्यालयों के वानिकी अनुसंधान कार्यकलापों, कार्यक्रमों का समन्वय करना है। वर्तमान में इसके अधीन 8 संस्थान और 3 केन्द्र कार्यरत हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 1991 में वन अनुसंधान संस्थान को सम विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने के बाद से संस्थान में शैक्षिक कार्यकलापों में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है। 2006 में इसने प्लेटिनम जुबली मनाया।
• 1929 में कुलागढ़ (देहरादून) में एक और अनुसंधान केन्द्र (वन अनुसंधानशाला) की स्थापना की गयी। बाद में फॉरेस्ट रेन्जरों के प्रशिक्षण के लिए देहरादून में ही इंडियन फॉरेस्ट रेन्जर कालेज की स्थापना की गयी।