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Famous people of Uttarakhand and their surnames | उत्तराखंड के प्रसिद्ध व्यक्ति और उनके उपनाम

उत्तराखंड के प्रसिद्ध व्यक्ति और उनके उपनाम 

उत्तराखंड के प्रसिद्ध व्यक्ति जिन्होंने उत्तराखंड को बनाने में अपनी महत्वपुर्ण भूमिका निभाई जैसे:- इन्द्रमणि बडोनी,बद्रीदत्त पाण्डेय,गौरा देवी आदि.

उपनाम -मूल नाम

    • गुमानी- लोक रत्न पन्त
    • मैती- कल्यान सिंह रावत
    • नाक काटने वाली रानी- रानी कर्णावती
    • उत्तराखण्ड के गाँधी  - इन्द्रमणि बडोनी
    • गढ़केशरी,कुमांऊ का चाणक्य - अनुसूया प्रसाद बहुगुणा
    • चारण - शिव प्रसाद डोभाल
    • हिमालय पुत्र - पंडित गोविन्द बल्लभ पंत
    • सरला बहन - मिस कथेरिन हैल्लीमन
    • चिपको वुमन ­- गौरा देवी
    • गर्भभंजक - माधो सिंह भण्डारी
    • तिंचरी माई,ठगुली देवी - दीपा नौटियाल
    • कुमाऊं केसरी - बद्रीदत्त पाण्डेय

इन्द्र मणि बडोनी - 

'उत्तराखण्ड का गांधी' नाम से सम्मानित हस्ताक्षर श्री बडोनी का जन्म 1924 में टिहरी के अखोडी गांव में हुआ था। इन्होंने सर्वप्रथम लोक कलाकार के रूप में कर्मक्षेत्र में पदापर्ण किया। राजनीति में वे बाद में उतरे।

1956 में इनके के नेतृत्व में टिहरी गढ़वाल के ग्रामीण कलाकारों के दल को लखनऊ में 'चौंफला केदार' नृत्यगीत प्रस्तुत करने पर .प्र. सूचना विभाग द्वारा प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 26 जनवरी, 1957 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय लोकनृत्य समारोह में बडोनी जी के दल को .प्र. का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया था  

वे देवप्रयाग (टिहरी गढ़वाल) निर्वाचन क्षेत्र से दो बार .प्र. विधानसभा के सदस्य रहे। पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग करने वाले पहले राजनेता थे। इस मांग को जन समर्थन देने के लिए 1979 में उन्होंने 'उत्तराखण्ड क्रांति दल' का गठन किया। बाद के वर्षों में भी वे इसके संरक्षक और अध्यक्ष रहे 7 अगस्त 1994 को राज्य की मांग को लेकर वे आमरण अनशन पर बैठ गये थे। 18 1999 उत्तराखण्ड के गठन से पूर्व ही इनका देहान्त हो गया।

कल्याण सिंह रावत 'मैती' -

इनका जन्म 1953 में चमोली के बैनोली (नाटी) में हुआ था। एक शिक्षक के पद पर रहते हुए 1974 में इन्होंने दुर्लभ वन्य प्राणियों की रक्षा एवं संवर्द्धन हेतु 'हिमालय वन्य जीव संस्थान' की स्थापना की और छात्रों के सहयोग से ये अब तक हिमालय क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक कैम्प तथा भावनात्मक अभियान चला चुके हैं। यथा 'देवभूमि क्षमा यात्रा', 'त्रिमूर्ति पद यात्रा' गढ़वाल तथा कुमाऊँ विश्वविद्यालय के बीच 'रजत जयन्ती रथ यात्रा', 'गाँवों की ओर चलो' पद यात्रा 'लोकमाटी वृक्ष अभिषेक समारोह (टिहरी)', 'वृक्ष अभिषेक समारोह राजगढ़ी' आदि। इन कार्यक्रमों को व्यापक जनसमर्थन मिल चुका

 

कारगिल में शहीद सैनिकों की स्मृति में जनसहयोग से 'शौर्य वन' तथा 'मैती वन' लगाया। राजजात यात्रा 2000 के समय उत्तरांचल के 13 जनपदों की जागरूक महिलाओं को एक स्थान पर बुलाकर एक 'नन्दा देवी स्मृति वन' की स्थापना नौटी के समीप की।

 

1995 में इन्होंने पर्यावरण के संरक्षण के लिए 'मैती' नामक भावनात्मक आन्दोलन की शुरुआत की जो कि राज्य के अधिकांश गांवों में संस्कार का रूप ले लिया है। इसमें प्रत्येक शादी में दुल्हा दुल्हन मिलकर पेड़ लगाते हैं। यह आन्दोलन भारत के बाहर भी लोकप्रिय होता जा रहा है। इस कार्यक्रम के प्रोत्साहन हेतु 'मैत पुरस्कार' की भी शुरुआत की है।

गौरा देवी( गौरा देवी):-



चिपको आंदोलन में उनका योगदान


    गौरा देवी 1974 में ध्यान में आईं जब उन्हें बताया गया कि स्थानीय लोग पेड़ों को काट रहे थे।
    रेनी गाँव के पुरुषों को गाँव के बाहर खबरों में रखा गया था कि सरकार मुआवजा देने जा रही है सेना द्वारा उपयोग की जाने वाली भूमि।
    उसने पुरुषों को चुनौती दी कि वे पेड़ों को काटने के बजाय उसे गोली मार दें और उसने जंगल को अपने मायका (माँ के घर) के साथ वर्णित किया।
    वे सशस्त्र लॉगर के दुरुपयोग के बावजूद पेड़ों को गले लगाकर अपने काम को रोकने में कामयाब रहे।
    उन्होंने उस रात पेड़ों की रखवाली की और अगले तीन,चार दिनों में अन्य गांवों और ग्रामीणों ने कार्रवाई में शामिल हो गए।लकड़हारे पेड़ों को छोड़कर चले गए।

    इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया, जिन्होंने अपने सांप्रदायिक जंगल को साफ करने से बचाया, एक दशक के चिपको प्रत्यक्ष पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में महिलाओं द्वारा कार्रवाई।
    गौरा देवी ने अपने सामुदायिक वन को बचाने के लिए पहली सभी महिला कार्रवाई का नेतृत्व किया और इस क्षेत्र की महिलाओं को सुरक्षा के लिए जुटाया उनकी प्राकृतिक विरासत। ।
  • 1970 के दशक में चिपको के कार्यकर्ता चरण के दौरान, उत्तराखंडी महिलाओं के साहस और सतर्कता ने कई जंगलों को बचाया उन्हें वैश्विक पर्यावरण आंदोलन के इतिहास में एक पवित्र स्थान प्राप्त हुआ।
    इस कार्रवाई से, चिपको को पारंपरिक वन अधिकारों की रक्षा में किसान आंदोलन के रूप में उभरना था, जो राज्य अतिक्रमण के प्रतिरोध की एक शताब्दी लंबी परंपरा को जारी रखता था।

 


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